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प्राकृतिक चिकित्सा की परिभाषा

प्राकृतिक चिकित्सा, यह एक ऐसी अनूठी प्रणाली है जिसमें जीवन के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक तलों के रचनात्मक सिद्धांतों के साथ व्यक्ति के सद्भाव का निर्माण होता है। इसमें स्वास्थ्य के प्रोत्साहन, रोग निवारक और उपचारात्मक के साथ-साथ फिर से मज़बूती प्रदान करने की भी अपार संभावनाएं हैं।

ब्रिटिश नेचरोपैथिक एसोसिएशन के घोषणापत्र के अनुसार, "प्राकृतिक चिकित्सा उपचार की एक ऐसी प्रणाली है जो शरीर के भीतर महत्वपूर्ण उपचारात्मक शक्ति के अस्तित्व को मान्यता देती है।" अतः यह मानव प्रणाली से रोगों के कारण दूर करने के लिए अर्थात रोग ठीक करने के लिए मानव शरीर से अवांछित और अप्रयुक्त मामलों को बाहर निकालकर विषाक्त पदार्थों को निकालकर मानव प्रणाली की सहायता की वकालत करती है।

प्राकृतिक चिकित्सा की मुख्य विशेषताएं

प्राकृतिक चिकित्सा की मुख्य विशेषताएं हैं

  1. सभी रोगों, उनके कारण और उपचार एक हैं। दर्दनाक और पर्यावरणीय स्थिति को छोड़कर, सभी रोगों का कारण एक है यानी शरीर में रुग्णता कारक पदार्थ का संचय होना। सभी रोगों का उपचार शरीर से रुग्णता कारक पदार्थ का उन्मूलन है।
  2. रोग का प्राथमिक कारण रुग्णता कारक पदार्थ का संचय है। बैक्टीरिया और वायरस शरीर में प्रवेश कर तभी जीवित रहते हैं जब रुग्णता कारक पदार्थ का संचय हो और उनके विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण शरीर में स्थापित हुआ हो। अतः रोग का मूल कारण रुग्णता कारक पदार्थ है और बैक्टीरिया द्वितीयक कारण बनते हैं।
  3. गंभीर बीमारियां शरीर द्वारा आत्म चिकित्सा का प्रयास होती हैं। अतः वे हमारी मित्र हैं, शत्रु नहीं। पुराने रोग, गंभीर बीमारियों के गलत उपचार और दमन का परिणाम हैं।
  4. प्रकृति सबसे बड़ा मरहम लगाने वाली है। मानव शरीर में स्वयं ही रोगों से खुद को बचाने की शक्ति है तथा अस्वस्थ होने पर स्वास्थ्य पुनः प्राप्त कर लेती है।
  5. प्राकृतिक चिकित्सा में केवल रोग ही नहीं बल्कि रोगी के पूरे शरीर पर असर होकर वह नवीकृत होता है।
  6. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा पुरानी बीमारियों से पीड़ित मरीजों को भी अपेक्षाकृत कम समय में सफलतापूर्वक उपचारित किया जाता है।
  7. प्रकृति के उपचार में दबे हुए रोगों को सतह पर लाया जाता है और स्थायी रूप से हटा दिया जाता है।
  8. प्राकृतिक चिकित्सा एक ही समय में सभी तरह के पहलुओं जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, का उपचार करती है।
  9. प्राकृतिक चिकित्सा शरीर का सम्पूर्ण रूप से उपचार करती है।
  10. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार, "केवल भोजन ही चिकित्सा है”, कोई बाहरी दवाओं का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
  11. स्वयं के आध्यात्मिक विश्वास के अनुसार प्रार्थना करना उपचार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

खुराक चिकित्सा

इस थेरेपी के अनुसार, भोजन प्राकृतिक रूप में लिया जाना चाहिए। ताज़े मौसमी फल, ताज़ी हरी पत्तेदार सब्जियां और अंकुरित भोजन बहुत ही लाभकारी हैं। ये आहार मोटे तौर पर तीन प्रकार में विभाजित हैं जो इस प्रकार हैं:

  1. एलिमिनेटिव (निष्कासन हेतु) आहार: तरल-नींबू, साइट्रिक रस, नर्म नारियल का पानी, वनस्पति सूप, छाछ, गेहूं की घास का रस आदि।
  2. सुखदायक आहार: फल, सलाद, उबली हुई/ वाष्पीकृत सब्जियां, अंकुर, सब्ज़ी की चटनी आदि
  3. रचनात्मक आहार: पौष्टिक आटा, अप्रसंस्कृत चावल, थोड़ी सी दालें, अंकुर, दही आदि

क्षारीय होने के नाते, ये आहार स्वास्थ्य में सुधार करने में, शरीर की सफ़ाई और बीमारी के लिए प्रतिरक्षा के प्रतिपादन में मदद करते हैं। इस लिहाज़ से भोजन का उचित संयोजन आवश्यक है। स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए हमारा भोजन 20% अम्लीय और 80% क्षारीय होना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए संतुलित भोजन नितान आवश्यक है। प्राकृतिक चिकित्सा में भोजन को दवा के रूप में माना जाता है.

उपवास चिकित्सा

उपवास (फास्ट) मुख्य रूप से स्वेच्छा से कुछ समयावधि के लिए कुछ या सभी भोजन, पेय, या दोनों से परहेज़ करना है। यह शब्द पुरानी अंग्रेजी से व्युत्पन्न ‘फीस्टन’ से निकला है जिसका मतलब है, उपवास करना, देखना और सख्त होना। संस्कृत में 'व्रत’ का अर्थ है 'दृढ़ संकल्प' और 'उपवास’ का अर्थ है 'ईश्वर के पास'। उपवास संपूर्ण हो सकता है, आंशिक और लंबे समय तक का हो सकता अथवा यह कुछ अवधि में रुक-रुक कर हो सकता है। स्वास्थ्य संरक्षण के लिए एक उपवास उपचार का महत्वपूर्ण साधन है। उपवास में, मानसिक तैयारी एक आवश्यक पूर्व शर्त है। लंबे समय का उपवास केवल एक सक्षम प्राकृतिक चिकित्सक के पर्यवेक्षण के अधीन किया जाना चाहिए।

उपवास की अवधि रोगी की उम्र, बीमारी की प्रकृति और पहले से इस्तेमाल की गई दवाओं के प्रकार पर निर्भर करती है। कभी-कभी कुछ समय दो या तीन दिन के उपवास की एक श्रृंखला शुरू करने और धीरे-धीरे एक या दो दिन से प्रत्येक उपवास की अवधि बढ़ाने की सलाह दी जाती है। उपवास कर रहे रोगी को कोई नुकसान नहीं होगा बशर्ते कि वो आराम करना और देखभाल किसी उचित पेशेवर के तहत कर रहा हो।

उपवास पानी, रस, या कच्ची सब्जियों के रस के साथ हो सकता है। सबसे अच्छी, सुरक्षित और सबसे प्रभावी विधि नीबू के रस से उपवास है। उपवास के दौरान शरीर जमा अपशिष्ट की भारी मात्रा को जलाकर निकालता है। हम क्षारीय रस पीकर इस सफाई की प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं। रसों में शर्करा ह्रदय को मजबूत करती है, इसलिए रस द्वारा उपवास, उसका सबसे अच्छा तरीका है। सभी रस, पीने से तुरंत पहले ताजा फल से तैयार किए जाने चाहिए। डिब्बाबंद या जमे हुए रस का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। एक एहतियाती उपाय है, जो उपवास के सभी मामलों में किया जाना चाहिए, एनीमा द्वारा उपवास की शुरुआत में आंत को पूरी तरह खाली करना ताकि मरीज को गैस या घटक शरीर में शेष अपशिष्ट से उत्पन्न अपघटित पदार्थ से परेशानी नहीं हो। उपवास की अवधि के दौरान एनिमा कम से कम हर दूसरे दिन लिया जाना चाहिए। कुल तरल पदार्थ सेवन लगभग छह से आठ गिलास होना चाहिए। उपवास के दौरान शरीर में संचित जहर और विषाक्त अपशिष्ट पदार्थों को नष्ट करने की प्रक्रिया में बहुत ऊर्जा खर्च होती है। इसलिए यह अत्यंत महत्व का है कि उपवास के दौरान रोगी को ज़्यादा से ज़्यादा सम्भव शारीरिक और मानसिक विश्राम प्राप्त हो।

उपवास की सफलता काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि उसे कैसे तोड़ा जाता है ? उपवास तोड़ने के मुख्य नियम हैं: आवश्यकता से अधिक न खाएं, भोजन को धीरे-धीरे चबा कर खाएं और सामान्य आहार के लिए क्रमिक बदलाव के लिए कई दिन लगाएं।

उपवास के शारीरिक लाभ और प्रभाव

इतिहास में अधिकतर संस्कृतियों के चिकित्सकों ने प्राचीन से आधुनिक काल तक विभिन्न स्थितियों के लिए चिकित्सा के रूप में उपवास की सिफारिश की है। हालांकि पहले के अवलोकन का अध्ययन बिना वैज्ञानिक पद्धति या समझ के किया गया था, वे फिर भी उपवास को एक चिकित्सीय साधन के रूप में प्रयुक्त करने के बारे में कहते हैं। पहले के अवलोकन पशु के व्यवहार पर आधारित थे लेकिन आज वे पशु के शरीर क्रिया विज्ञान पर आधारित हैं। इस लेख में हम यह विचार करने की कोशिश करेंगे कि शारीरिक और चयापचय लाभ का वर्णन करने वाले साहित्य की समीक्षा के माध्यम से उपवास लोगों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में कैसे अच्छी तरह उपयोगी हो सकता है। उपवास (कैलोरी पर नियंत्रण और रुक-रुक कर उपवास) द्वारा प्राप्त शारीरिक प्रभावों में सबसे प्रमुख निम्नलिखित हैं: इंसुलिन संवेदनशीलता में वृद्धि जिसके परिणामस्वरूप प्लाज्मा ग्लूकोज व इंसुलिन सांद्रता के स्तर में कमी होती है और ग्लूकोज सहनशीलता में सुधार होता है, ऑक्सिडेटिव तनाव के स्तर में कमी जो प्रोटींस, लिपिड्स व डीएनए को घटे हुए ऑक्सिडेटिव नुकसान द्वारा दर्शाई जाती है, गर्मी, ऑक्सीडेटिव और चयापचय तनाव सहित विभिन्न तनावों के प्रतिरोध में वृद्धि और प्रतिरक्षा कार्य में बढ़ौत्री।

सकल और कोशिकीय शरीर क्रिया दोनों कैलोरी के प्रतिबंध (सीआर) या रुक-रुक कर उपवास अभ्यासों (आइआर) से बहुत प्रभावित होती हैं। सकल शरीर क्रिया विज्ञान के लिहाज़ से बेशक शरीर के वसा और द्रव्यमान में महत्वपूर्ण कमी होती है, जो एक स्वस्थ हृदय प्रणाली को सहयोग देती है और रोधगलन की घटनाओं को कम कर देती है। ह्रदय के बचाव के अलावा जिगर में तनाव के प्रति अधिक सहिष्णुता प्रेरित होती जो होमो सैपिअंस की पोषक कोर है। कीटोन बॉडी (जैसे β-हाइड्रॉक्सिब्यूटाइरेट) की तरह के वैकल्पिक ऊर्जा भंडार होमो सैपिअंस को जीवन के अतिरिक्त बर्दाश्त करने में सक्षम बनाते हैं। (इन्स) इंसुलिन और ग्लूकोज के प्रति बढ़ी हुई संवेदनशीलता से अत्यधिक और हानिकारक रक्त ग्लूकोज में कटौती होती है और एक ऊर्जा स्रोत के रूप में इसका उपयोग होता है।

मृदा (मिट्टी) से उपचार

मृदा उपचार बहुत सरल और प्रभावी उपचार साधन है। इसके लिए प्रयोग की जाने वाली मिट्टी साफ होनी चाहिए और जमीन की सतह से 3 से 4 फीट की गहराई से ली जानी चाहिए। मिट्टी में पत्थर के टुकड़े या रासायनिक खाद आदि का कोई संदूषण नहीं होना चाहिए।

मिट्टी प्रकृति के पांच तत्वों में से एक है जिसका शरीर के स्वास्थ्य और बीमारी दोनों पर बहुत प्रभाव होता है। मिट्टी के उपयोग के लाभ:

  1. इसका काला रंग सूर्य की धूप के सभी रंग अवशोषित कर उन्हें शरीर को प्रदान करता है।
  2. मिट्टी एक लंबे तक नमी को बरकरार रखती है, शरीर पर लेप करने पर यह ठंडक प्रदान करती है।
  3. इसके आकार और एकरूपता को पानी मिलाकर आसानी से बदला जा सकता है।
  4. यह सस्ती और आसानी से उपलब्ध होती है।

उपयोग करने से पहले पत्थर, घास कणों और अन्य अशुद्धियों को अलग करने के लिए मिट्टी को सुखाना, चूरा बनाना और छानना चाहिए।

स्थानीय अनुप्रयोग हेतु मिट्टी का पैक

एक पतले, गीले मलमल के कपड़े को मिट्टी में लथपथ कर और रोगी के पेट के आकार के आधार पर एक पतली ईंट के आकार में उसे बनाकर, रखें। मिट्टी के पैक के आवेदन की अवधि 20 से 30 मिनट है। ठंड के मौसम में आवेदन करने पर, मिट्टी के पैक पर एक कंबल डाल दें और शरीर को भी अच्छी तरह से ढक दें।

मिट्टी के पैक के लाभ

  1. पेट पर लगाने पर यह सभी प्रकार के अपच को दूर कर देती है। यह आंतों की गर्मी कम करने और पेरिस्टालसिस को उत्तेजित करने में प्रभावी है।
  2. कंजेस्टिव सिरदर्द में सिर एक मिट्टी के मोटे पैक का आवेदन करने पर दर्द से तुरंत राहत मिलती है। इसलिए जब एक लंबे समय तक ठंडे आवेदन की आवश्यकता हो, इसकी सिफारिश की जाती है।
  3. आंखों पर पैक का आवेदन नेत्रश्लेष्मलाशोथ, नेत्रगोलक के हैमरेज, खुजली, एलर्जी, अपवर्तन के कम होने के दोष जैसे निकट दृष्टि और दूरदृष्टि की तरह त्रुटियों के मामलों में उपयोगी है, और विशेष रूप से मोतियाबिंद में, जिसमें यह नेत्रगोलक के तनाव को कम करने में मदद करता है।

चेहरे के लिए मिट्टी का पैक

गीली मिट्टी चेहरे पर लगाकर 30 मिनट तक सूखने दी जाती है। यह त्वचा के रंग में सुधार लाने और मुंहासों को हटाने तथा त्वचा के छिद्र खोलने में मददगार होती है जो मुंहासों के उन्मूलन में सहायक है। यह आंखों के आसपास के काले घेरे को दूर करने में भी सहायक है। 30 मिनट के बाद चेहरा ठंडे पानी से अच्छी तरह से धोया जाना चाहिए।

मिट्टी से स्नान

मिट्टी मरीज़ को बैठने या लेटने की स्थिति में लगाई जा सकती है। यह परिसंचरण बढ़ाकर व त्वचा के ऊतकों को सक्रिय कर त्वचा की स्थिति में सुधार करने में मदद करती है। स्नान के दौरान ठंड पकड़ने से बचने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिए। बाद में, रोगी को ठंडे पानी की धार से अच्छी तरह धोया जाना चाहिए। यदि मरीज ठंड महसूस करता है तो गर्म पानी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उसके बाद रोगी को तुरंत सुखाकर एक गर्म बिस्तर पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। मिट्टी से स्नान की अवधि 45 से 60 मिनट हो सकती है।

मिट्टी से स्नान के लाभ

  1. मिट्टी के प्रभाव नवीनता प्रदान करने, स्फूर्ति और सक्रियता देने वाले होते हैं।
  2. घावों और त्वचा रोगों के लिए, मिट्टी का आवेदन ही सही प्रकार की पट्टी है।
  3. मिट्टी से उपचार का प्रयोग शरीर को ठंडक देने के लिए किया जाता है।
  4. यह शरीर के विषाक्त पदार्थों को तरलीकृत कर अवशोषित करती है और अंततः उन्हें शरीर से निकाल देती है।
  5. कब्ज, तनाव के कारण सिर दर्द, उच्च रक्तचाप, त्वचा आदि जैसे विभिन्न रोगों में मिट्टी का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है।
  6. गांधीजी कब्ज से छुटकारा पाने के लिए मिट्टी के पैक का इस्तेमाल करते थे।

जलोपचार

जलोपचार प्राकृतिक चिकित्सा की एक शाखा है। यह पानी के विभिन्न रूपों का उपयोग कर विकारों का उपचार है। पानी के अनुप्रयोग के ये रूप बहुत पुराने समय से अभ्यास में हैं। जलतापीय चिकित्सा अतिरिक्त रूप से तापमान के प्रभाव का उपयोग, गर्म और ठंडे स्नान, सौना, आवरण आदि में और उसके सभी रूपों ठोस, तरल, भाप, बर्फ और भाप, आंतरिक और बाह्य रूप से, में उपयोग करती है। जल नि:सन्देह रोग के लिए सभी उपचारात्मक एजेंटों में सबसे प्राचीन है। अब इस महान चिकित्सा माध्यम को व्यवस्थित कर एक विज्ञान के रूप में बनाया गया है। हाइड्रिएटिक अनुप्रयोग आम तौर पर विभिन्न तापमानों पर दिया जाता है, अनुप्रयोग के तापमान नीचे तालिका में दिए गए हैं:

क्र.सं.

तापमान

oफेरनहाइट

oसेल्सियस

1.

बहुत ठंडा (बर्फ का अनुप्रयोग)

30-55

-1-13

2.

ठंडा

55-65

13-18

3.

ठंडा

65-80

18-27

4.

गुनगुना

80-92

27-33

5.

गर्म(तटस्थ)

92-98
(92-95)

33-37
(33-35)

6.

गर्म

98-104

37-40

7.

बहुत गर्म

104 से अधिक

40 से अधिक

जल का प्रभाव और उपयोग

  1. साफ ठंडे पानी से ठीक तरीके से स्नान करना जलोपचार का एक उत्कृष्ट रूप है। इस तरह के स्नान त्वचा के सभी रोम खोलकर शरीर को हल्का व ताज़ा बना देते हैं। ठंडे स्नान में शरीर की सभी प्रणालियों और मांसपेशियों को सक्रियता मिलती है और स्नान के बाद रक्त परिसंचरण में सुधार होता है। नदियों, तालाबों, या झरने में विशेष अवसरों पर स्नान करने की पुरानी परंपरा एक तरह से जलोपचार का प्राकृतिक रूप ही है।
  2. यह इच्छित तापीय और यांत्रिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए सबसे अधिक लचीला माध्यम है और एक सीमित क्षेत्र या पूरे शरीर की सतह पर लागू किया जा सकता है।
  3. यह गर्मी को अवशोषित करने में सक्षम है और बड़ी तत्परता के साथ गर्मी बाहर भी फेंक देता है। इसलिए, यह शरीर से अतिरिक्त गर्मी बाहर करने या उसमें गर्मी प्रविष्ट करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। हालांकि ठंडा पानी के इस्तेमाक का मुख्य उद्देश्य शारीरिक गर्मी को निकाल या कम करना नहीं है, बल्कि खो दी गई गर्मी की तुलना में अधिक गर्मी उत्पन्न करने की महत्वपूर्ण शक्ति बढ़ाने का है।
  4. . एक सार्वभौमिक विलायक होने के नाते, इसका उपयोग आंतरिक, एनीमा या कोलोनिक सिंचाई या पानी पीने के रूप में, यूरिक एसिड, यूरिया, नमक, अत्यधिक चीनी, और कई अन्य रक्त और खाद्य रसायन जो कि अपशिष्ट उत्पाद हैं, के उन्मूलन में अत्यधिक सहायता करता है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन तरीकों के सफल उपयोग के लिए महत्वपूर्ण शक्ति का एक निश्चित ज़रूरी होता है। जहां शक्ति बहुत कम है, ये निरर्थक हैं। गंभीर स्थितियों की तरह महत्वपूर्ण शक्ति अधिक होती है और इसलिए महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया में एक निश्चितता होती है। पुराने मामलों में, जहां महत्वपूर्ण शक्ति कम हो, ये स्नान कम उपयोगी होते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में पैक उपयोगी होते हैं क्योंकि वे अपने अनुप्रयोग में तुलनात्मक रूप से हल्के होते हैं।

उपचार में जल का कई रूपों में प्रयोग किया जाता है. उपचार के विभिन्न प्रकार हैं:

  1. . गीली पट्टी और पुल्टिस
    • ठंडी सेक: पेट की ठंडी सिकाई
    • तापीय सिकाई: सीने का पैक, पेट का पैक, गीला करधनी पैक, गले का पैक, घुटने का पैक, और पूरी गीली चादर का पैक
    • गर्म और ठंडी सिकाई: सिर, फेफड़े, गुर्दे, गैस्ट्रो यकृत, श्रोणि और पेट की गर्म और ठंडी सिकाई
  2. स्नान
    • हिप स्नान - ठंडा, तटस्थ, गर्म, Stiz स्नान और वैकल्पिक हिप स्नान
    • मेरुदंड का स्नान और मेरुदंड में स्प्रे: ठंडा, तटस्थ, गर्म
    • पैर और भुजा स्नान: पैर का ठंडा, गर्म स्नान, भुजा स्नान, संयुक्त रूप से गर्म पैर और भुजा, कंट्रास्ट भुजा स्नान और कंट्रास्ट पैर स्नान।
    • साँस द्वारा भाप लेना और भाप स्नान
    • सौना बाथ
    • स्पंज स्नान
  3. जेटस्प्रे मालिश
    • ठंडी, तटस्थ, गर्म, वैकल्पिक, चक्रीय जेट स्प्रे मालिश
    • अभिसिंचन स्नान: ठंडा अभिसिंचन, तटस्थ अभिसिंचन, गर्म अभिसिंचन, गर्म एवं ठंडे अभिसिंचन
    • ठंडा स्नान
    • ट्रॉमा जेटस्प्रे
  4. डूब स्नान: ठंडा डूब स्नान, घर्षण के साथ ठंडा डूब, तटस्थ डूब स्नान, गर्म डूब, तटस्थ अर्ध स्नान, एप्सोम नमक के साथ ग्रेजुएटेड डूब स्नान, अस्थमा स्नान, भँवर स्नान, पानी के अन्दर मालिश
  5. एनीमा: ग्रेजुएटेड एनीमा, योनि की धुलाई, ठंडी धुलाई, तटस्थ धुलाई, गर्म धुलाई
  6. हाइड्रो उपचार के तौर तरीकों में से एक कोलोन (बड़ी आंत) की थेरेपी है।

कोलोन (मलाशय) का जलोपचार

यह कोलोन या बड़ी आंत की सफाई या फ्लशिंग की प्रक्रिया है। यह उपचार एक एनीमा के समान है, लेकिन अधिक व्यापक है। यह रुके हुए मल को कोलोन से निकालने या उसकी गन्दगी दूर करने के लिए सौम्य दबाव (दर्द के बिना) के तहत साफ फ़िल्टर्ड पानी का उपयोग करती है। सत्रों की संख्या व्यक्ति पर निर्भर करेगी। बड़ी आंत की पूरी तरह से सफाई के लिए अधिकांश लोगों को 3-6 उपचारों की एक श्रृंखला की आवश्यकता होती है।

जलोपचार के लाभ और शारीरिक प्रभाव

जलोपचार के स्वास्थ्यवर्धक और चिकित्सकीय गुण उसके यांत्रिक और/या तापीय प्रभावों पर आधारित हैं। यह गर्म और ठंडे उत्तेजन के प्रति, गर्मी के दीर्घ आवेदन, पानी से उत्पन्न दबाव और उसके द्वारा प्रदत्त अनुभूति के प्रति शरीर की प्रतिक्रिया का लाभ लेती है। नसें, त्वचा पर महसूस किए आवेग को शरीर में गहराई पर ले जाती हैं, जहाँ वे प्रतिरक्षा प्रणाली के उत्तेजक, तनाव हार्मोन के उत्पादन को प्रभावित करने, परिसंचरण और पाचन को उत्तेजित करने, रक्त के प्रवाह को प्रोत्साहित करने और दर्द के प्रति संवेदनशीलता कम करने में सहायक होती हैं। आम तौर पर गर्मी आंतरिक अंगों की गतिविधि को धीमा शरीर को शांत करती है। इसके विपरीत ठंड, उत्तेजित करती है, और आंतरिक गतिविधियों में वृद्धि करती है।

इसका यांत्रिक क्रिया स्नान के दौरान होती है जब एक कुण्ड, एक पूल, या एक भँवर में डूबे हुए शरीर के वजन में 50% से 90% कमी हो जाती है और एक तरह की भारहीनता का अनुभव होता है। शरीर को गुरुत्वाकर्षण के निरंतर खिंचाव से राहत मिलती है। पानी का भी हाइड्रोस्टेटिक प्रभाव है। यह मालिश की तरह अनुभव देता है चूंकि पानी धीरे-धीरे आपके शरीर को गूंथता है। गति में, पानी त्वचा के स्पर्श ग्राह्य हिस्से को उत्तेजित करता है, और रक्त परिसंचरण को बढ़ाने तथा खिंची हुई मांसपेशियों को ढीला करता है।

मालिश थेरेपी

मालिश निष्क्रिय व्यायाम का एक उत्कृष्ट रूप है। यह शब्द ग्रीक शब्द 'मस्सिअर’ जिसका अर्थ है गूंथना, फ्रेंच ‘गूंथने का घर्षण’ या अरबी मस्स जिसका अर्थ “स्पर्श करना, महसूस करना या संभाल" है या लेटिन मस्सा से जिसका अर्थ "भार, आटा” से व्युत्पन्न है। मालिश भौतिक (शारीरिक), कार्यात्मक (शारीरिक), और कुछ मामलों में मनोवैज्ञानिक उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ कोमल ऊतक के हेरफेर का अभ्यास है। यदि सही ढंग से एक नंगे शरीर पर की जाए, तो यह अत्यधिक उत्तेजक और स्फूर्तिदायक हो सकती है।

मालिश भी प्राकृतिक चिकित्सा का और काफी अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक साधन है। मालिश में शरीर पर दबाव के साथ संरचित, असंरचित, स्थिर, या गतिमान-तनाव, गति, या कंपन, के साथ हाथों से या यांत्रिक जरिए से छेड़छाड़ शामिल है। लक्षित ऊतकों में मांसपेशियां, टेंडंस, लिगामेंट, त्वचा, जोड़, या अन्य संयोजी ऊतकों से साथ-साथ लसीका वाहिकाएं शामिल हो सकते हैं। मालिश हाथ, उंगलियों, कोहनी, घुटनों, बांह की कलाई और पैर के साथ की जा सकती है। लगभग अस्सी से अधिक विभिन्न मान्यता प्राप्त मालिश के साधन हैं। यह रक्त परिसंचरण में सुधार और शारीरिक अंगों को मजबूत बनाने का काम करती है। सर्दियों के मौसम में, पूरे शरीर की मालिश के बाद सूर्य स्नान अच्छी तरह से स्वास्थ्य और शक्ति के संरक्षण के अभ्यास के रूप में जाना जाता है। यह सभी के लिए फायदेमंद है। यह मालिश और सूरज की किरणों की चिकित्सा के संयुक्त लाभ प्रदान करता है। बीमारी की स्थिति में, आवश्यक उपचारात्मक प्रभाव मालिश की विशिष्ट तकनीक के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। मालिश उनके लिए एक विकल्प है जो व्यायाम नहीं कर सकते हैं। व्यायाम के प्रभाव मालिश से प्राप्त किए जा सकते हैं। सरसों तेल, तिल का तेल, नारियल तेल, जैतून का तेल, खुशबूदार तेल आदि जैसे विभिन्न तेलों का स्नेहक के रूप में उपयोग किया जाता है, जो उपचारात्मक प्रभाव देते हैं।

मालिश के सात बुनियादी तरीके हैं और ये हैं: स्पर्श, मालिश करते समय थपथपाना (पथपाकर), घर्षण (रगड़ना), पेट्रिसाज (सानना), टैपोटमेंट (ठोकना) कंपन (हिलाना या कंपकंपाना) और जोड़ों को हिलाना। हरकत रोग की स्थिति और मालिश किए गए भागों के अनुसार भिन्न होती है।

ज्यादातर बीमारियों में उपयोगी मालिश का दूसरा रूप कम्पनयुक्त मालिश, पाउडर मालिश, जल मालिश, सूखी मालिश है। नीम के पत्तों का पाउडर, गुलाब की पंखुड़ियों का भी मालिश के लिए स्नेहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

मालिश के शारीरिक प्रभाव

रिफ्लेक्स प्रभाव (तंत्रिका तंत्र द्वारा मध्यस्थता की गई प्रतिक्रियाएं)

  1. धमनियों का वेसोडाइलेशन (व्यास में वृद्धि)
  2. क्रमाकुंचन की उत्तेजना (पाचन में मदद करती है)
  3. मांसपेशियों की टोन में वृद्धि या कमी
  4. उदर गुहा में अंगों की गतिविधि बढ़ जाती है
  5. ढीलेपन की प्रतिक्रिया आरम्भ होती है
  6. मांसपेशियों पर सुखदायक या उत्तेजक प्रभाव
  7. ह्रदय को उत्तेजित करती है, शक्ति और संकुचन की दर को बढ़ावा देती है
  8. प्रतिरक्षा प्रणाली की क्षमता बढ़ाती है

यांत्रिक प्रभाव (हाथ द्वारा सीधे लागू दबाव से उत्पन्न की प्रतिक्रियाएं)

  1. शिरापरक वापसी में वृद्धि
  2. लसीका प्रवाह, लसीका जल निकासी में वृद्धि
  3. संचार दक्षता
  4. श्लेष्म ढीला होना (श्वसन प्रणाली)
  5. तंतुमयता/संलग्नता टूटना
  6. छोटी मांसपेशियों के लिए खिंचाव/ मांसपेशियों के रेशे ढीले होना
  7. मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि
  8. स्थानीय स्तर पर चयापचय दर में वृद्धि और गैसीय विनिमय
  9. निशान के ऊतक खींचता है
  10. मांसपेशियों के टोन में कमी/मांसपेशियों के टोन में वृद्धि
  11. गति की सीमा में वृद्धि
  12. जोड़ों की उचित यांत्रिकी/बायोमैकेनिक्स की बहाली
  13. मांसपेशियों के असंतुलन का उन्मूलन
  14. कमजोर मांसपेशियों को मजबूत बनाना

मालिश के लाभ

शरीर के सभी भागों पर की जाने वाली सामान्य मालिश कई मायनों में बेहद फायदेमंद है। यह तंत्रिका तंत्र को टोन करती है, श्वसन को प्रभावित करती है और फेफड़े, त्वचा, गुर्दे और आंत के रूप में विभिन्न निकास अंगों के माध्यम से जहर और शरीर से अपशिष्ट पदार्थ के उन्मूलन को तेज़ करती है। यह रक्त परिसंचरण और चयापचय की प्रक्रिया को भी बढ़ा देती है। मालिश चेहरे की झुर्रियों को हटाती है, खोखले गाल और गर्दन को भरने में मदद करती है और अकड़ी हुई, दर्द करती तथा सुन्न मांसपेशियों को आराम देती है।

सहकर्मियों द्वारा समीक्षा किए गए चिकित्सा अनुसंधान से दर्द से राहत, चिंता और अवसाद के लक्षण कम होना, रक्तचाप, हृदय की दर, और चिंता में अस्थायी रूप से कमी होने जैसे लाभ शामिल होने के बारे में पता चला है। मालिश क्या कर सकती है, इसके पीछे के सिद्धांतों में शामिल है नोसिसेप्शन अवरुद्ध करना (गेट नियंत्रण सिद्धांत), पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र को सक्रिय करना जिससे एंडोर्फिन और सेरोटोनिन की रिहाई प्रोत्साहित हो, तंतुमयता या निशान ऊतक को रोकना, लसीका का प्रवाह बढ़ना, और नींद में सुधार शामिल हैं, लेकिन अभी इस तरह के प्रभाव अच्छी तरह से डिजाइन किए गए नैदानिक अध्ययन द्वारा पुष्ट किए जाने बाकी हैं।

एक्युप्रेशर

एक्यूप्रेशर उपचार की एक प्राचीन चिकित्सा कला है जिसमें शरीर की प्राकृतिक आत्म उपचारात्मक क्षमताओं को प्रोत्साहित करने के लिए उंगलियों या किसी भी गैर-नोकदार वस्तु से त्वचा की सतह पर लयदार तरीके से विशेष बिन्दुओं, जिन्हें ‘एक्यु बिन्दु’ (ऊर्जा संग्राहक बिन्दु) कहा जाता है, पर दबाव दिया जाता है। जब इन बिन्दुओं को दबाया जाता है, वे मांसपेशियों का खिंचाव कम करते हैं और ठीक होने में सहायता के लिए रक्त संचार व शरीर शक्ति को बढ़ावा देते हैं।

एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर में एकसमान बिन्दुओं का उपयोग होता है’ जबकि एक्यूप्रेशर में हाथ या किसी भी गैर-नोकदार वस्तु के कोमल, लेकिन मज़बूत दबाव का उपयोग होता है, एक्यूपंक्चर में सुई का उपयोग होता है। एक्यूप्रेशर का कम से कम 5000 साल से एक चिकित्सा कला के रूप इस्तेमाल किया गया है। इस पूरी स्वास्थ्य प्रणाली को 3000 स्थितियों के उपचार में उपयोग के लिए प्रलेखित किया गया है। अब एक्यु बिन्दु सामान्यतः ट्रांस्क्युटेनस विद्युत तंत्रिका उत्तेजना (अर्थात टीईएनएस) और विशिष्ट तरंग दैर्ध्य में एलईडी डायोड से लेजर प्रकाश के उपयोग द्वारा उपचारित किए जाते हैं जिसके तेज़ और स्थायी प्रभाव दिखाई दिए हैं।

एक्यूप्रेशर दर्शन और एक्यु बिन्दु उत्तेजना एक्यूपंक्चर की तरह ही समान सिद्धांतों पर आधारित है। दबाव, बिजली द्वारा उत्तेजना या सुई के बजाय प्रकाश लेजर का उपयोग करके यह शिरोबिंदु कही जाने वाली, सम्पूर्ण शरीर में दौड़ने वाली ऊर्जा की रेखा के विशिष्ट रिफ्लेक्स बिन्दुओं को उत्तेजित करने का काम करती है। कुल 14 मुख्य शिरोबिंदु रेखाएं होती हैं जिनमें से प्रत्येक, व्यक्ति के शरीर के विशेष अंग से सम्बद्ध होती है। जब महत्वपूर्ण ऊर्जा शिरोबिंदु से एक संतुलित और समान तरीके से प्रवाहित होने में सक्षम होती है, तो परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य बेहतर होता है। जब आप दर्द या बीमारी का अनुभव करते हैं तो यह एक संकेत होता है कि आपके शरीर के भीतर ऊर्जा के प्रवाह में अवरोध या रिसाव है।

उपयुक्त बिंदु को खोजने के लिए, धीरे से क्षेत्र की तब तक जांच करें जब तक वह बिंदु न मिल जाए जो ‘फनी बोन’ का आभास न दे या जो संवेदनशील, नर्म या दर्द करने वाला न हो। उसके बाद उस बिन्दु को इतने ज़ोर से दबाएं कि उसमें दर्द हो। उत्तेजना घूर्णन दबाव द्वारा दी जाती है जिसमें पाँच सेकंड तक स्थिर दबाव और पाँच सेकंड तक दबाव हटाया जाता है। आमतौर पर प्रत्येक उपचार सत्र के लिए एक मिनट पर्याप्त है।

एक्यूप्रेशर सिर दर्द, आंखों के तनाव, साइनस की समस्या, गर्दन के दर्द, पीठ के दर्द, गठिया, मांसपेशियों में दर्द, अल्सर के दर्द, मासिक धर्म ऐंठन, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, कब्ज और अपच, चिंता, अनिद्रा आदि में राहत देने में मदद करने में प्रभावी हो सकता है।

शरीर के संतुलन और अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने में एक्युप्रेशर के उपयोग के बड़े लाभ हैं। एक्यूप्रेशर का राह्त देने वाला स्पर्श तनाव कम कर देता है, परिसंचरण बढ़ाता है, और शरीर को गहरे आराम के लिए सक्षम बनाता है। तनाव से राहत प्रदान कर, एक्यूप्रेशर रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है और अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है।

एक्यूपंक्चर

एक्यूपंक्चर शरीर के विशिष्ट बिन्दु पर बारीक सुइयां चुभोकर एवं हिलाकर दर्द से राहत देने की प्रक्रिया या उपचारात्मक उद्देश्यों की एक प्रक्रिया है। शब्द एक्यूपंक्चर लैटिन एकस, "सुई", और पंगेरे "चुभोना" से बना है।

परंपरागत चीनी चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार, एक्यूपंक्चर बिंदु शिरोबिंदुओं पर स्थित हैं जिसके सहारे क्यूई, महत्वपूर्ण ऊर्जा, बहती है। एक्यूपंक्चर बिन्दुओं या शिरोबिंदुओं के अस्तित्व के लिए कोई ज्ञात संरचनात्मक या ऐतिहासिक आधार नहीं है।

चीन में, एक्यूपंक्चर का उपयोग सबसे पहले प्रमाण पाषाण युग से प्राप्त होता है, जहां इसके लिए बियान शी या तेज पत्थर का इस्तेमाल किया जाता था। चीन में एक्यूपंक्चर का मूल अनिश्चित हैं। सबसे पहला चीनी चिकित्सा लेख जो एक्यूपंक्चर का वर्णन करता है, पीले सम्राट का आंतरिक चिकित्सा का क्लासिक (एक्यूपंक्चर इतिहास) हुआंग्डी नैजिंग है, जो 305-204 ई.पू. के आसपास संकलित किया गया था। कुछ हाइरोग्लाइफिक्स 1000 ई.पू. में पाए गए हैं जो एक्युपंक्चर के प्रारंभिक उपयोग का संकेत हो सकते हैं एक पौराणिक कथा के अनुसार एक्यूपंक्चर की शुरुआत चीन में तब हुई जब कुछ सैनिकों को जो युद्ध में तीर से घायल हो गए थे, शरीर के अन्य भागों में दर्द से राहत का अनुभव हुआ, और फलस्वरूप लोगों ने उपचार के लिए तीर के साथ (और बाद में सुइयों से) प्रयोग शुरू कर दिया। एक्युपंक्चर का प्रसार चीन से कोरिया, जापान और वियतनाम और पूर्वी एशिया में अन्य स्थानों पर हुआ। 16 वीं सदी में पुर्तगाली मिशनरी पश्चिम के बीच को एक्यूपंक्चर की रिपोर्ट लाने वालों में सबसे पहले थे।

एक्यूपंक्चर के परंपरागत सिद्धांत

पारंपरिक चीनी दवा में, शरीर के भीतर यिन और यांग के संतुलन की शर्त को "स्वास्थ्य" माना जाता है। कुछ ने यिन और यांग की सहानुभूतिपूर्ण और परा-सहानुभूतिपूर्ण तंत्रिका प्रणाली से तुलना की है। एक्यूपंक्चर में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्यूई का मुक्त प्रवाह, अनुवाद करने के लिए कठिन अवधारणा जो चीनी दर्शन में व्याप्त है और आमतौर पर "महत्वपूर्ण ऊर्जा" के रूप में अनुवादित है। क्यूई सारहीन है और इसलिए यांग; उसका यिन, सामग्री समकक्ष रक्त है (यह शारीरिक रक्त से अलग है, और बहुत मोटे तौर पर यह उसके समकक्ष है) एक्यूपंक्चर उपचार क्यूई और रक्त के प्रवाह को नियंत्रित करता है, जहां उसकी कमी हो वहां टोनिफाय करता है; जहां अतिरिक्त हो वहां से निकास करता है और जहां ठहराव है वहां मुक्त प्रवाह को बढ़ावा देता है। एक्यूपंक्चर की चिकित्सा साहित्य की एक स्वयंसिद्ध कहावत है "कोई दर्द नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई दर्द नहीं”

पारम्परिक चीनी दर्शन मानव शरीर को सम्पूर्ण रूप में देखता है जिसमें कई “कार्य प्रणालियां” हैं जिन्हें सामान्य तौर पर शारीरिक अंगों पर नाम दिया जाता है लेकिन जो उनसे सीधे सम्बन्धित नहीं हैं। इन पद्धतियों के लिए चीनी शब्द झांग फू है, जहां झांग "आंत" या ठोस अंग और फू "आंत" या खोखले अंगों के रूप में अनुवादित किया गया है। रोग को यिन, यांग क्यूई और रक्त के संतुलन की हानि के रूप में समझा जाता है (जो होमिओस्टेसिस के कुछ सादृश्य है)। रोग के उपचार का प्रयास परंपरागत रूप से अंग्रेजी में “एक्यूपंक्चर बिंदुओं", या चीनी में ‘ग्ज़ू” कहे जाने वाले छोटी मात्रा के शरीर के संवेदनशील हिस्से पर सुइयों, दबाव, गर्मी आदि की गतिविधि के माध्यम से एक या अधिक कार्य प्रणालियों की गतिविधि को संशोधित कर किया जाता है। इसे TCM में "बेसुरेपन के पैटर्न" के इलाज के रूप में संदर्भित किया जाता है।

मुख्य एक्यूपंक्चर बिंदुओं में से अधिकांश “बारह मुख्य शिरोबिंदुओं" और दो "आठ अतिरिक्त शिरोबिंदुओं (डु माई और रेन माई) - कुल “चौदह चैनलों” पर पाए जाते हैं, जो शास्त्रीय और पारंपरिक चीनी चिकित्सा ग्रंथों में उस मार्ग के रूप में वर्णित हैं जिनसे क्यूई और “रक्त” का प्रवाह होता है। अन्य नर्म बिन्दु (“आशि बिन्दु” के रूप में जाने जाते हैं) पर भी सुई लगाई जा सकती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वहां ठहराव इकट्ठा होता है।

रोगों, लक्षणों या स्थितियों की श्रृंखला जिनके लिए एक्यूपंक्चर को एक प्रभावी उपचार के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

  • एलर्जिक र्हिनाइटिस
  • अवसाद
  • सिरदर्द
  • सुबह की बीमारी सहित मतली और उल्टी
  • अधिजठर, चेहरे, गर्दन, टेनिस कोहनी, पीठ के निचले हिस्से, घुटने में दंत चिकित्सा के दौरान और आपरेशन के बाद में दर्द
  • प्राथमिक डिस्मेनोरिया
  • रुमेटी गठिया
  • कटिस्नायुशूल
  • ग्रीवा और काठ का स्पॉंसिलोसिस
  • दमा
  • अनिद्रा

रंग चिकित्सा

सूरज की किरणों के सात रंगों में विभिन्न उपचारात्मक प्रभाव हैं। ये रंग हैं, बैंगनी, इंडिगो, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल। स्वस्थ रहने और विभिन्न रोगों के उपचार में ये रंग प्रभावी ढंग से काम करते हैं। निर्दिष्ट समय के लिए रंगीन बोतलों और रंगीन ग्लासों में, धूप में रखे पानी और तेल को रंग थेरेपी द्वारा विभिन्न विकारों के इलाज के लिए उपकरणों के रूप में उपयोग किया जाता है। रंग थेरेपी के सरल तरीके स्वस्थ होने की प्रक्रिया में बहुत प्रभावी ढंग से मदद करते हैं।

वायु उपचार

ताजा हवा अच्छे स्वास्थ्य के लिए सबसे जरूरी है। वायु स्नान के माध्यम से वायु चिकित्सा का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को दैनिक 20 मिनट या यदि संभव हो तो उससे अधिक समय के लिए वायु स्नान करना चाहिए। यह अधिक फायदेमंद है जब सुबह ठंडी रगड़ और व्यायाम के साथ संयुक्त रूप से किया जाए। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति को रोज़ाना कपड़े उतारकर या हल्के कपड़े पहनकर एकांतयुक्त साफ स्थान पर चलना चाहिए, जहां पर्याप्त ताजा हवा उपलब्ध हो। एक अन्य वैकल्पिक विधि है छतविहीन लेकिन दीवारों की तरह शटर से घिरे कमरे में ताकि वायु प्रवाह उन्मुक्त रूप से हो लेकिन अन्दरूनी दृश्य किसी को दिखाई न दे।

तंत्र

ठंडी हवा या पानी के द्रुतशीतन प्रभाव के खिलाफ प्रतिक्रिया करने के लिए, वे तंत्रिका केन्द्र, जो परिसंचरण नियंत्रण करते हैं, बड़ी मात्रा में सतह पर रक्त भेजते हैं और त्वचा को गर्म, लाल, धमनीय रक्त द्वारा फ्लश करते हैं। रक्त धारा का प्रवाह बहुत बढ़ जाता है और शरीर की सतह से रुग्ण स्र्ग्ण पदार्थ के उन्मूलन में भी तदनुसार वृद्धि होती है।

क्रियाविधि

वायु स्नान शरीर की सतह पर समाप्त हो रही लाखों तंत्रिकाओं पर सुखदायक और टॉनिक प्रभाव डालता है। यह घबराहट, नसों की दुर्बलता, गठिया, त्वचा, मानसिक और विभिन्न अन्य पुरानी बीमारियों के मामलों में अच्छा परिणाम देता है।

चुंबक चिकित्सा

चुंबक चिकित्सा एक नैदानिक प्रणाली है जिसमें रोगियों के शरीर पर चुम्बक के अनुप्रयोग के माध्यम से रोगों का इलाज किया जाता है। यह सबसे सरल, सबसे सस्ती और पूरी तरह दर्दरहित प्रणाली है जिसमें उपचार के बाद लगभग कोई भी दुष्प्रभाव नहीं होते हैं। केवल इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण केवल चुंबक होता है।

चुंबकीय उपचार विभिन्न शक्तियों में उपलब्ध चिकित्सीय मैग्नेट द्वारा शरीर के अंगों पर सीधे या शरीर के लिए सामान्य उपचार के रूप में लागू किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न भागों जैसे पेट, घुटने, कलाई, आदि के लिए चुंबकीय बेल्ट उपलब्ध हैं। चुंबकीय हार, चश्मे और कंगन का भी इलाज के लिए उपयोग किया जाता है।

लाभ: ऊर्जा संतुलन में मदद करता है; लागू क्षेत्र के लिए परिसंचरण में सुधार करता है; शरीर में गर्माहट में वृद्धि करता है।


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प्राकृतिक चिकित्सा की परिभाषा

प्राकृतिक चिकित्सा, यह एक ऐसी अनूठी प्रणाली है जिसमें जीवन के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक तलों के रचनात्मक सिद्धांतों के साथ व्यक्ति के सद्भाव का निर्माण होता है। इसमें स्वास्थ्य के प्रोत्साहन, रोग निवारक और उपचारात्मक के साथ-साथ फिर से मज़बूती प्रदान करने की भी अपार संभावनाएं हैं।

ब्रिटिश नेचरोपैथिक एसोसिएशन के घोषणापत्र के अनुसार, "प्राकृतिक चिकित्सा उपचार की एक ऐसी प्रणाली है जो शरीर के भीतर महत्वपूर्ण उपचारात्मक शक्ति के अस्तित्व को मान्यता देती है।" अतः यह मानव प्रणाली से रोगों के कारण दूर करने के लिए अर्थात रोग ठीक करने के लिए मानव शरीर से अवांछित और अप्रयुक्त मामलों को बाहर निकालकर विषाक्त पदार्थों को निकालकर मानव प्रणाली की सहायता की वकालत करती है।

प्राकृतिक चिकित्सा की मुख्य विशेषताएं

प्राकृतिक चिकित्सा की मुख्य विशेषताएं हैं

  1. सभी रोगों, उनके कारण और उपचार एक हैं। दर्दनाक और पर्यावरणीय स्थिति को छोड़कर, सभी रोगों का कारण एक है यानी शरीर में रुग्णता कारक पदार्थ का संचय होना। सभी रोगों का उपचार शरीर से रुग्णता कारक पदार्थ का उन्मूलन है।

  2. रोग का प्राथमिक कारण रुग्णता कारक पदार्थ का संचय है। बैक्टीरिया और वायरस शरीर में प्रवेश कर तभी जीवित रहते हैं जब रुग्णता कारक पदार्थ का संचय हो और उनके विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण शरीर में स्थापित हुआ हो। अतः रोग का मूल कारण रुग्णता कारक पदार्थ है और बैक्टीरिया द्वितीयक कारण बनते हैं।

  3. गंभीर बीमारियां शरीर द्वारा आत्म चिकित्सा का प्रयास होती हैं। अतः वे हमारी मित्र हैं, शत्रु नहीं। पुराने रोग, गंभीर बीमारियों के गलत उपचार और दमन का परिणाम हैं।

  4. प्रकृति सबसे बड़ा मरहम लगाने वाली है। मानव शरीर में स्वयं ही रोगों से खुद को बचाने की शक्ति है तथा अस्वस्थ होने पर स्वास्थ्य पुनः प्राप्त कर लेती है।

  5. प्राकृतिक चिकित्सा में केवल रोग ही नहीं बल्कि रोगी के पूरे शरीर पर असर होकर वह नवीकृत होता है।

  6. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा पुरानी बीमारियों से पीड़ित मरीजों को भी अपेक्षाकृत कम समय में सफलतापूर्वक उपचारित किया जाता है।

  7. प्रकृति के उपचार में दबे हुए रोगों को सतह पर लाया जाता है और स्थायी रूप से हटा दिया जाता है।

  8. प्राकृतिक चिकित्सा एक ही समय में सभी तरह के पहलुओं जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, का उपचार करती है।

  9. प्राकृतिक चिकित्सा शरीर का सम्पूर्ण रूप से उपचार करती है।

  10. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार, "केवल भोजन ही चिकित्सा है”, कोई बाहरी दवाओं का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

  11. स्वयं के आध्यात्मिक विश्वास के अनुसार प्रार्थना करना उपचार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

खुराक चिकित्सा

इस थेरेपी के अनुसार, भोजन प्राकृतिक रूप में लिया जाना चाहिए। ताज़े मौसमी फल, ताज़ी हरी पत्तेदार सब्जियां और अंकुरित भोजन बहुत ही लाभकारी हैं। ये आहार मोटे तौर पर तीन प्रकार में विभाजित हैं जो इस प्रकार हैं:

  1. एलिमिनेटिव (निष्कासन हेतु) आहार: तरल-नींबू, साइट्रिक रस, नर्म नारियल का पानी, वनस्पति सूप, छाछ, गेहूं की घास का रस आदि।

  2. सुखदायक आहार: फल, सलाद, उबली हुई/ वाष्पीकृत सब्जियां, अंकुर, सब्ज़ी की चटनी आदि

  3. रचनात्मक आहार: पौष्टिक आटा, अप्रसंस्कृत चावल, थोड़ी सी दालें, अंकुर, दही आदि

क्षारीय होने के नाते, ये आहार स्वास्थ्य में सुधार करने में, शरीर की सफ़ाई और बीमारी के लिए प्रतिरक्षा के प्रतिपादन में मदद करते हैं। इस लिहाज़ से भोजन का उचित संयोजन आवश्यक है। स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए हमारा भोजन 20% अम्लीय और 80% क्षारीय होना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए संतुलित भोजन नितान आवश्यक है। प्राकृतिक चिकित्सा में भोजन को दवा के रूप में माना जाता है.

उपवास चिकित्सा

उपवास (फास्ट) मुख्य रूप से स्वेच्छा से कुछ समयावधि के लिए कुछ या सभी भोजन, पेय, या दोनों से परहेज़ करना है। यह शब्द पुरानी अंग्रेजी से व्युत्पन्न ‘फीस्टन’ से निकला है जिसका मतलब है, उपवास करना, देखना और सख्त होना। संस्कृत में 'व्रत’ का अर्थ है 'दृढ़ संकल्प' और 'उपवास’ का अर्थ है 'ईश्वर के पास'। उपवास संपूर्ण हो सकता है, आंशिक और लंबे समय तक का हो सकता अथवा यह कुछ अवधि में रुक-रुक कर हो सकता है। स्वास्थ्य संरक्षण के लिए एक उपवास उपचार का महत्वपूर्ण साधन है। उपवास में, मानसिक तैयारी एक आवश्यक पूर्व शर्त है। लंबे समय का उपवास केवल एक सक्षम प्राकृतिक चिकित्सक के पर्यवेक्षण के अधीन किया जाना चाहिए।

उपवास की अवधि रोगी की उम्र, बीमारी की प्रकृति और पहले से इस्तेमाल की गई दवाओं के प्रकार पर निर्भर करती है। कभी-कभी कुछ समय दो या तीन दिन के उपवास की एक श्रृंखला शुरू करने और धीरे-धीरे एक या दो दिन से प्रत्येक उपवास की अवधि बढ़ाने की सलाह दी जाती है। उपवास कर रहे रोगी को कोई नुकसान नहीं होगा बशर्ते कि वो आराम करना और देखभाल किसी उचित पेशेवर के तहत कर रहा हो।

उपवास पानी, रस, या कच्ची सब्जियों के रस के साथ हो सकता है। सबसे अच्छी, सुरक्षित और सबसे प्रभावी विधि नीबू के रस से उपवास है। उपवास के दौरान शरीर जमा अपशिष्ट की भारी मात्रा को जलाकर निकालता है। हम क्षारीय रस पीकर इस सफाई की प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं। रसों में शर्करा ह्रदय को मजबूत करती है, इसलिए रस द्वारा उपवास, उसका सबसे अच्छा तरीका है। सभी रस, पीने से तुरंत पहले ताजा फल से तैयार किए जाने चाहिए। डिब्बाबंद या जमे हुए रस का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। एक एहतियाती उपाय है, जो उपवास के सभी मामलों में किया जाना चाहिए, एनीमा द्वारा उपवास की शुरुआत में आंत को पूरी तरह खाली करना ताकि मरीज को गैस या घटक शरीर में शेष अपशिष्ट से उत्पन्न अपघटित पदार्थ से परेशानी नहीं हो। उपवास की अवधि के दौरान एनिमा कम से कम हर दूसरे दिन लिया जाना चाहिए। कुल तरल पदार्थ सेवन लगभग छह से आठ गिलास होना चाहिए। उपवास के दौरान शरीर में संचित जहर और विषाक्त अपशिष्ट पदार्थों को नष्ट करने की प्रक्रिया में बहुत ऊर्जा खर्च होती है। इसलिए यह अत्यंत महत्व का है कि उपवास के दौरान रोगी को ज़्यादा से ज़्यादा सम्भव शारीरिक और मानसिक विश्राम प्राप्त हो।

उपवास की सफलता काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि उसे कैसे तोड़ा जाता है ? उपवास तोड़ने के मुख्य नियम हैं: आवश्यकता से अधिक न खाएं, भोजन को धीरे-धीरे चबा कर खाएं और सामान्य आहार के लिए क्रमिक बदलाव के लिए कई दिन लगाएं।

उपवास के शारीरिक लाभ और प्रभाव

इतिहास में अधिकतर संस्कृतियों के चिकित्सकों ने प्राचीन से आधुनिक काल तक विभिन्न स्थितियों के लिए चिकित्सा के रूप में उपवास की सिफारिश की है। हालांकि पहले के अवलोकन का अध्ययन बिना वैज्ञानिक पद्धति या समझ के किया गया था, वे फिर भी उपवास को एक चिकित्सीय साधन के रूप में प्रयुक्त करने के बारे में कहते हैं। पहले के अवलोकन पशु के व्यवहार पर आधारित थे लेकिन आज वे पशु के शरीर क्रिया विज्ञान पर आधारित हैं। इस लेख में हम यह विचार करने की कोशिश करेंगे कि शारीरिक और चयापचय लाभ का वर्णन करने वाले साहित्य की समीक्षा के माध्यम से उपवास लोगों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में कैसे अच्छी तरह उपयोगी हो सकता है। उपवास (कैलोरी पर नियंत्रण और रुक-रुक कर उपवास) द्वारा प्राप्त शारीरिक प्रभावों में सबसे प्रमुख निम्नलिखित हैं: इंसुलिन संवेदनशीलता में वृद्धि जिसके परिणामस्वरूप प्लाज्मा ग्लूकोज व इंसुलिन सांद्रता के स्तर में कमी होती है और ग्लूकोज सहनशीलता में सुधार होता है, ऑक्सिडेटिव तनाव के स्तर में कमी जो प्रोटींस, लिपिड्स व डीएनए को घटे हुए ऑक्सिडेटिव नुकसान द्वारा दर्शाई जाती है, गर्मी, ऑक्सीडेटिव और चयापचय तनाव सहित विभिन्न तनावों के प्रतिरोध में वृद्धि और प्रतिरक्षा कार्य में बढ़ौत्री।

सकल और कोशिकीय शरीर क्रिया दोनों कैलोरी के प्रतिबंध (सीआर) या रुक-रुक कर उपवास अभ्यासों (आइआर) से बहुत प्रभावित होती हैं। सकल शरीर क्रिया विज्ञान के लिहाज़ से बेशक शरीर के वसा और द्रव्यमान में महत्वपूर्ण कमी होती है, जो एक स्वस्थ हृदय प्रणाली को सहयोग देती है और रोधगलन की घटनाओं को कम कर देती है। ह्रदय के बचाव के अलावा जिगर में तनाव के प्रति अधिक सहिष्णुता प्रेरित होती जो होमो सैपिअंस की पोषक कोर है। कीटोन बॉडी (जैसे β-हाइड्रॉक्सिब्यूटाइरेट) की तरह के वैकल्पिक ऊर्जा भंडार होमो सैपिअंस को जीवन के अतिरिक्त बर्दाश्त करने में सक्षम बनाते हैं। (इन्स) इंसुलिन और ग्लूकोज के प्रति बढ़ी हुई संवेदनशीलता से अत्यधिक और हानिकारक रक्त ग्लूकोज में कटौती होती है और एक ऊर्जा स्रोत के रूप में इसका उपयोग होता है।

मृदा (मिट्टी) से उपचार

मृदा उपचार बहुत सरल और प्रभावी उपचार साधन है। इसके लिए प्रयोग की जाने वाली मिट्टी साफ होनी चाहिए और जमीन की सतह से 3 से 4 फीट की गहराई से ली जानी चाहिए। मिट्टी में पत्थर के टुकड़े या रासायनिक खाद आदि का कोई संदूषण नहीं होना चाहिए।

मिट्टी प्रकृति के पांच तत्वों में से एक है जिसका शरीर के स्वास्थ्य और बीमारी दोनों पर बहुत प्रभाव होता है। मिट्टी के उपयोग के लाभ:

  1. इसका काला रंग सूर्य की धूप के सभी रंग अवशोषित कर उन्हें शरीर को प्रदान करता है।

  2. मिट्टी एक लंबे तक नमी को बरकरार रखती है, शरीर पर लेप करने पर यह ठंडक प्रदान करती है।

  3. इसके आकार और एकरूपता को पानी मिलाकर आसानी से बदला जा सकता है।

  4. यह सस्ती और आसानी से उपलब्ध होती है।

उपयोग करने से पहले पत्थर, घास कणों और अन्य अशुद्धियों को अलग करने के लिए मिट्टी को सुखाना, चूरा बनाना और छानना चाहिए।

स्थानीय अनुप्रयोग हेतु मिट्टी का पैक

एक पतले, गीले मलमल के कपड़े को मिट्टी में लथपथ कर और रोगी के पेट के आकार के आधार पर एक पतली ईंट के आकार में उसे बनाकर, रखें। मिट्टी के पैक के आवेदन की अवधि 20 से 30 मिनट है। ठंड के मौसम में आवेदन करने पर, मिट्टी के पैक पर एक कंबल डाल दें और शरीर को भी अच्छी तरह से ढक दें।

मिट्टी के पैक के लाभ

  1. पेट पर लगाने पर यह सभी प्रकार के अपच को दूर कर देती है। यह आंतों की गर्मी कम करने और पेरिस्टालसिस को उत्तेजित करने में प्रभावी है।

  2. कंजेस्टिव सिरदर्द में सिर एक मिट्टी के मोटे पैक का आवेदन करने पर दर्द से तुरंत राहत मिलती है। इसलिए जब एक लंबे समय तक ठंडे आवेदन की आवश्यकता हो, इसकी सिफारिश की जाती है।

  3. आंखों पर पैक का आवेदन नेत्रश्लेष्मलाशोथ, नेत्रगोलक के हैमरेज, खुजली, एलर्जी, अपवर्तन के कम होने के दोष जैसे निकट दृष्टि और दूरदृष्टि की तरह त्रुटियों के मामलों में उपयोगी है, और विशेष रूप से मोतियाबिंद में, जिसमें यह नेत्रगोलक के तनाव को कम करने में मदद करता है।

चेहरे के लिए मिट्टी का पैक

गीली मिट्टी चेहरे पर लगाकर 30 मिनट तक सूखने दी जाती है। यह त्वचा के रंग में सुधार लाने और मुंहासों को हटाने तथा त्वचा के छिद्र खोलने में मददगार होती है जो मुंहासों के उन्मूलन में सहायक है। यह आंखों के आसपास के काले घेरे को दूर करने में भी सहायक है। 30 मिनट के बाद चेहरा ठंडे पानी से अच्छी तरह से धोया जाना चाहिए।

मिट्टी से स्नान

मिट्टी मरीज़ को बैठने या लेटने की स्थिति में लगाई जा सकती है। यह परिसंचरण बढ़ाकर व त्वचा के ऊतकों को सक्रिय कर त्वचा की स्थिति में सुधार करने में मदद करती है। स्नान के दौरान ठंड पकड़ने से बचने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिए। बाद में, रोगी को ठंडे पानी की धार से अच्छी तरह धोया जाना चाहिए। यदि मरीज ठंड महसूस करता है तो गर्म पानी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उसके बाद रोगी को तुरंत सुखाकर एक गर्म बिस्तर पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। मिट्टी से स्नान की अवधि 45 से 60 मिनट हो सकती है।

मिट्टी से स्नान केलाभ

  1. मिट्टी के प्रभाव नवीनता प्रदान करने, स्फूर्ति और सक्रियता देने वाले होते हैं।

  2. घावों और त्वचा रोगों के लिए, मिट्टी का आवेदन ही सही प्रकार की पट्टी है।

  3. मिट्टी से उपचार का प्रयोग शरीर को ठंडक देने के लिए किया जाता है।

  4. यह शरीर के विषाक्त पदार्थों को तरलीकृत कर अवशोषित करती है और अंततः उन्हें शरीर से निकाल देती है।

  5. कब्ज, तनाव के कारण सिर दर्द, उच्च रक्तचाप, त्वचा आदि जैसे विभिन्न रोगों में मिट्टी का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है।

  6. गांधीजी कब्ज से छुटकारा पाने के लिए मिट्टी के पैक का इस्तेमाल करते थे।

जलोपचार

जलोपचार प्राकृतिक चिकित्सा की एक शाखा है। यह पानी के विभिन्न रूपों का उपयोग कर विकारों का उपचार है। पानी के अनुप्रयोग के ये रूप बहुत पुराने समय से अभ्यास में हैं। जलतापीय चिकित्सा अतिरिक्त रूप से तापमान के प्रभाव का उपयोग, गर्म और ठंडे स्नान, सौना, आवरण आदि में और उसके सभी रूपों ठोस, तरल, भाप, बर्फ और भाप, आंतरिक और बाह्य रूप से, में उपयोग करती है। जल नि:सन्देह रोग के लिए सभी उपचारात्मक एजेंटों में सबसे प्राचीन है। अब इस महान चिकित्सा माध्यम को व्यवस्थित कर एक विज्ञान के रूप में बनाया गया है। हाइड्रिएटिक अनुप्रयोग आम तौर पर विभिन्न तापमानों पर दिया जाता है, अनुप्रयोग के तापमान नीचे तालिका में दिए गए हैं:

 

जल का प्रभाव और उपयोग

  1. साफ ठंडे पानी से ठीक तरीके से स्नान करना जलोपचार का एक उत्कृष्ट रूप है। इस तरह के स्नान त्वचा के सभी रोम खोलकर शरीर को हल्का व ताज़ा बना देते हैं। ठंडे स्नान में शरीर की सभी प्रणालियों और मांसपेशियों को सक्रियता मिलती है और स्नान के बाद रक्त परिसंचरण में सुधार होता है। नदियों, तालाबों, या झरने में विशेष अवसरों पर स्नान करने की पुरानी परंपरा एक तरह से जलोपचार का प्राकृतिक रूप ही है।

  2. यह इच्छित तापीय और यांत्रिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए सबसे अधिक लचीला माध्यम है और एक सीमित क्षेत्र या पूरे शरीर की सतह पर लागू किया जा सकता है।

  3. यह गर्मी को अवशोषित करने में सक्षम है और बड़ी तत्परता के साथ गर्मी बाहर भी फेंक देता है। इसलिए, यह शरीर से अतिरिक्त गर्मी बाहर करने या उसमें गर्मी प्रविष्ट करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। हालांकि ठंडा पानी के इस्तेमाक का मुख्य उद्देश्य शारीरिक गर्मी को निकाल या कम करना नहीं है, बल्कि खो दी गई गर्मी की तुलना में अधिक गर्मी उत्पन्न करने की महत्वपूर्ण शक्ति बढ़ाने का है।

  4. . एक सार्वभौमिक विलायक होने के नाते, इसका उपयोग आंतरिक, एनीमा या कोलोनिक सिंचाई या पानी पीने के रूप में, यूरिक एसिड, यूरिया, नमक, अत्यधिक चीनी, और कई अन्य रक्त और खाद्य रसायन जो कि अपशिष्ट उत्पाद हैं, के उन्मूलन में अत्यधिक सहायता करता है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन तरीकों के सफल उपयोग के लिए महत्वपूर्ण शक्ति का एक निश्चित ज़रूरी होता है। जहां शक्ति बहुत कम है, ये निरर्थक हैं। गंभीर स्थितियों की तरह महत्वपूर्ण शक्ति अधिक होती है और इसलिए महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया में एक निश्चितता होती है। पुराने मामलों में, जहां महत्वपूर्ण शक्ति कम हो, ये स्नान कम उपयोगी होते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में पैक उपयोगी होते हैं क्योंकि वे अपने अनुप्रयोग में तुलनात्मक रूप से हल्के होते हैं।

उपचार में जल का कई रूपों में प्रयोग किया जाता है. उपचार के विभिन्न प्रकार हैं:

  1. गीली पट्टी और पुल्टिस

    • ठंडी सेक: पेट की ठंडी सिकाई

    • तापीय सिकाई: सीने का पैक, पेट का पैक, गीला करधनी पैक, गले का पैक, घुटने का पैक, और पूरी गीली चादर का पैक

    • गर्म और ठंडी सिकाई: सिर, फेफड़े, गुर्दे, गैस्ट्रो यकृत, श्रोणि और पेट की गर्म और ठंडी सिकाई

  2. स्नान

    • हिप स्नान - ठंडा, तटस्थ, गर्म, Stiz स्नान और वैकल्पिक हिप स्नान

    • मेरुदंड का स्नान और मेरुदंड में स्प्रे: ठंडा, तटस्थ, गर्म

    • पैर और भुजा स्नान: पैर का ठंडा, गर्म स्नान, भुजा स्नान, संयुक्त रूप से गर्म पैर और भुजा, कंट्रास्ट भुजा स्नान और कंट्रास्ट पैर स्नान।

    • साँस द्वारा भाप लेना और भाप स्नान

    • सौना बाथ

    • स्पंज स्नान

  3. जेटस्प्रे मालिश

    • ठंडी, तटस्थ, गर्म, वैकल्पिक, चक्रीय जेट स्प्रे मालिश

    • अभिसिंचन स्नान: ठंडा अभिसिंचन, तटस्थ अभिसिंचन, गर्म अभिसिंचन, गर्म एवं ठंडे अभिसिंचन

    • ठंडा स्नान

    • ट्रॉमा जेटस्प्रे

  4. डूब स्नान: ठंडा डूब स्नान, घर्षण के साथ ठंडा डूब, तटस्थ डूब स्नान, गर्म डूब, तटस्थ अर्ध स्नान, एप्सोम नमक के साथ ग्रेजुएटेड डूब स्नान, अस्थमा स्नान, भँवर स्नान, पानी के अन्दर मालिश

  5. एनीमा: ग्रेजुएटेड एनीमा, योनि की धुलाई, ठंडी धुलाई, तटस्थ धुलाई, गर्म धुलाई

  6. हाइड्रो उपचार के तौर तरीकों में से एक कोलोन (बड़ी आंत) की थेरेपी है।

कोलोन (मलाशय) का जलोपचार

यह कोलोन या बड़ी आंत की सफाई या फ्लशिंग की प्रक्रिया है। यह उपचार एक एनीमा के समान है, लेकिन अधिक व्यापक है। यह रुके हुए मल को कोलोन से निकालने या उसकी गन्दगी दूर करने के लिए सौम्य दबाव (दर्द के बिना) के तहत साफ फ़िल्टर्ड पानी का उपयोग करती है। सत्रों की संख्या व्यक्ति पर निर्भर करेगी। बड़ी आंत की पूरी तरह से सफाई के लिए अधिकांश लोगों को 3-6 उपचारों की एक श्रृंखला की आवश्यकता होती है।

जलोपचार के लाभ और शारीरिक प्रभाव

जलोपचार के स्वास्थ्यवर्धक और चिकित्सकीय गुण उसके यांत्रिक और/या तापीय प्रभावों पर आधारित हैं। यह गर्म और ठंडे उत्तेजन के प्रति, गर्मी के दीर्घ आवेदन, पानी से उत्पन्न दबाव और उसके द्वारा प्रदत्त अनुभूति के प्रति शरीर की प्रतिक्रिया का लाभ लेती है। नसें, त्वचा पर महसूस किए आवेग को शरीर में गहराई पर ले जाती हैं, जहाँ वे प्रतिरक्षा प्रणाली के उत्तेजक, तनाव हार्मोन के उत्पादन को प्रभावित करने, परिसंचरण और पाचन को उत्तेजित करने, रक्त के प्रवाह को प्रोत्साहित करने और दर्द के प्रति संवेदनशीलता कम करने में सहायक होती हैं। आम तौर पर गर्मी आंतरिक अंगों की गतिविधि को धीमा शरीर को शांत करती है। इसके विपरीत ठंड, उत्तेजित करती है, और आंतरिक गतिविधियों में वृद्धि करती है।

इसका यांत्रिक क्रिया स्नान के दौरान होती है जब एक कुण्ड, एक पूल, या एक भँवर में डूबे हुए शरीर के वजन में 50% से 90% कमी हो जाती है औरएक तरह की भारहीनता का अनुभव होता है। शरीर को गुरुत्वाकर्षण के निरंतर खिंचाव से राहत मिलती है। पानी का भी हाइड्रोस्टेटिक प्रभाव है। यह मालिश की तरह अनुभव देता है चूंकि पानी धीरे-धीरे आपके शरीर को गूंथता है। गति में, पानी त्वचा के स्पर्श ग्राह्य हिस्से को उत्तेजित करता है, और रक्त परिसंचरण को बढ़ाने तथा खिंची हुई मांसपेशियों को ढीला करता है।

मालिश थेरेपी

मालिश निष्क्रिय व्यायाम का एक उत्कृष्ट रूप है। यह शब्द ग्रीक शब्द 'मस्सिअर’ जिसका अर्थ है गूंथना, फ्रेंच ‘गूंथने का घर्षण’ या अरबी मस्स जिसका अर्थ “स्पर्श करना, महसूस करना या संभाल" है या लेटिन मस्सा से जिसका अर्थ "भार, आटा” से व्युत्पन्न है। मालिश भौतिक (शारीरिक), कार्यात्मक (शारीरिक), और कुछ मामलों में मनोवैज्ञानिक उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ कोमल ऊतक के हेरफेर का अभ्यास है। यदि सही ढंग से एक नंगे शरीर पर की जाए, तो यह अत्यधिक उत्तेजक और स्फूर्तिदायक हो सकती है।

मालिश भी प्राकृतिक चिकित्सा का और काफी अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक साधन है। मालिश में शरीर पर दबाव के साथ संरचित, असंरचित, स्थिर, या गतिमान-तनाव, गति, या कंपन, के साथ हाथों से या यांत्रिक जरिए से छेड़छाड़ शामिल है। लक्षित ऊतकों में मांसपेशियां, टेंडंस, लिगामेंट, त्वचा, जोड़, या अन्य संयोजी ऊतकों से साथ-साथ लसीका वाहिकाएं शामिल हो सकते हैं। मालिश हाथ, उंगलियों, कोहनी, घुटनों, बांह की कलाई और पैर के साथ की जा सकती है। लगभग अस्सी से अधिक विभिन्न मान्यता प्राप्त मालिश के साधन हैं। यह रक्त परिसंचरण में सुधार और शारीरिक अंगों को मजबूत बनाने का काम करती है। सर्दियों के मौसम में, पूरे शरीर की मालिश के बाद सूर्य स्नान अच्छी तरह से स्वास्थ्य और शक्ति के संरक्षण के अभ्यास के रूप में जाना जाता है। यह सभी के लिए फायदेमंद है। यह मालिश और सूरज की किरणों की चिकित्सा के संयुक्त लाभ प्रदान करता है। बीमारी की स्थिति में, आवश्यक उपचारात्मक प्रभाव मालिश की विशिष्ट तकनीक के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। मालिश उनके लिए एक विकल्प है जो व्यायाम नहीं कर सकते हैं। व्यायाम के प्रभाव मालिश से प्राप्त किए जा सकते हैं। सरसों तेल, तिल का तेल, नारियल तेल, जैतून का तेल, खुशबूदार तेल आदि जैसे विभिन्न तेलों का स्नेहक के रूप में उपयोग किया जाता है, जो उपचारात्मक प्रभाव देते हैं।

मालिश के सात बुनियादी तरीके हैं और ये हैं: स्पर्श, मालिश करते समय थपथपाना (पथपाकर), घर्षण (रगड़ना), पेट्रिसाज (सानना), टैपोटमेंट (ठोकना) कंपन (हिलाना या कंपकंपाना) और जोड़ों को हिलाना। हरकत रोग की स्थिति और मालिश किए गए भागों के अनुसार भिन्न होती है।

ज्यादातर बीमारियों में उपयोगी मालिश का दूसरा रूप कम्पनयुक्त मालिश, पाउडर मालिश, जल मालिश, सूखी मालिश है। नीम के पत्तों का पाउडर, गुलाब की पंखुड़ियों का भी मालिश के लिए स्नेहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

मालिश के शारीरिक प्रभाव

रिफ्लेक्स प्रभाव (तंत्रिका तंत्र द्वारा मध्यस्थता की गई प्रतिक्रियाएं)

  1. धमनियों का वेसोडाइलेशन (व्यास में वृद्धि)

  2. क्रमाकुंचन की उत्तेजना (पाचन में मदद करती है)

  3. मांसपेशियों की टोन में वृद्धि या कमी

  4. उदर गुहा में अंगों की गतिविधि बढ़ जाती है

  5. ढीलेपन की प्रतिक्रिया आरम्भ होती है

  6. मांसपेशियों पर सुखदायक या उत्तेजक प्रभाव

  7. ह्रदय को उत्तेजित करती है, शक्ति और संकुचन की दर को बढ़ावा देती है

  8. प्रतिरक्षा प्रणाली की क्षमता बढ़ाती है

यांत्रिक प्रभाव (हाथ द्वारा सीधे लागू दबाव से उत्पन्न की प्रतिक्रियाएं)

  1. शिरापरक वापसी में वृद्धि

  2. लसीका प्रवाह, लसीका जल निकासी में वृद्धि

  3. संचार दक्षता

  4. श्लेष्म ढीला होना (श्वसन प्रणाली)

  5. तंतुमयता/संलग्नता टूटना

  6. छोटी मांसपेशियों के लिए खिंचाव/ मांसपेशियों के रेशे ढीले होना

  7. मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि

  8. स्थानीय स्तर पर चयापचय दर में वृद्धि और गैसीय विनिमय

  9. निशान के ऊतक खींचता है

  10. मांसपेशियों के टोन में कमी/मांसपेशियों के टोन में वृद्धि

  11. गति की सीमा में वृद्धि

  12. जोड़ों की उचित यांत्रिकी/बायोमैकेनिक्स की बहाली

  13. मांसपेशियों के असंतुलन का उन्मूलन

  14. कमजोर मांसपेशियों को मजबूत बनाना

मालिश के लाभ

शरीर के सभी भागों पर की जाने वाली सामान्य मालिश कई मायनों में बेहद फायदेमंद है। यह तंत्रिका तंत्र को टोन करती है, श्वसन को प्रभावित करती है और फेफड़े, त्वचा, गुर्दे और आंत के रूप में विभिन्न निकास अंगों के माध्यम से जहर और शरीर से अपशिष्ट पदार्थ के उन्मूलन को तेज़ करती है। यह रक्त परिसंचरण और चयापचय की प्रक्रिया को भी बढ़ा देती है। मालिश चेहरे की झुर्रियों को हटाती है, खोखले गाल और गर्दन को भरने में मदद करती है और अकड़ी हुई, दर्द करती तथा सुन्न मांसपेशियों को आराम देती है।

सहकर्मियों द्वारा समीक्षा किए गए चिकित्सा अनुसंधान से दर्द से राहत, चिंता और अवसाद के लक्षण कम होना, रक्तचाप, हृदय की दर, और चिंता में अस्थायी रूप से कमी होने जैसे लाभ शामिल होने के बारे में पता चला है। मालिश क्या कर सकती है, इसके पीछे के सिद्धांतों में शामिल है नोसिसेप्शन अवरुद्ध करना (गेट नियंत्रण सिद्धांत), पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र को सक्रिय करना जिससे एंडोर्फिन और सेरोटोनिन की रिहाई प्रोत्साहित हो, तंतुमयता या निशान ऊतक को रोकना, लसीका का प्रवाह बढ़ना, और नींद में सुधार शामिल हैं, लेकिन अभी इस तरह के प्रभाव अच्छी तरह से डिजाइन किए गए नैदानिक अध्ययन द्वारा पुष्ट किए जाने बाकी हैं।

एक्युप्रेशर

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एक्यूप्रेशर उपचार की एक प्राचीन चिकित्सा कला है जिसमें शरीर की प्राकृतिक आत्म उपचारात्मक क्षमताओं को प्रोत्साहित करने के लिए उंगलियों या किसी भी गैर-नोकदार वस्तु से त्वचा की सतह पर लयदार तरीके से विशेष बिन्दुओं, जिन्हें ‘एक्यु बिन्दु’ (ऊर्जा संग्राहक बिन्दु) कहा जाता है, पर दबाव दिया जाता है। जब इन बिन्दुओं को दबाया जाता है, वे मांसपेशियों का खिंचाव कम करते हैं और ठीक होने में सहायता के लिए रक्त संचार व शरीर शक्ति को बढ़ावा देते हैं।

एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर में एकसमान बिन्दुओं का उपयोग होता है’ जबकि एक्यूप्रेशर में हाथ या किसी भी गैर-नोकदार वस्तु के कोमल, लेकिन मज़बूत दबाव का उपयोग होता है, एक्यूपंक्चर में सुई का उपयोग होता है। एक्यूप्रेशर का कम से कम 5000 साल से एक चिकित्सा कला के रूप इस्तेमाल किया गया है। इस पूरी स्वास्थ्य प्रणाली को 3000 स्थितियों के उपचार में उपयोग के लिए प्रलेखित किया गया है। अब एक्यु बिन्दु सामान्यतः ट्रांस्क्युटेनस विद्युत तंत्रिका उत्तेजना (अर्थात टीईएनएस) और विशिष्ट तरंग दैर्ध्य में एलईडी डायोड से लेजर प्रकाश के उपयोग द्वारा उपचारित किए जाते हैं जिसके तेज़ और स्थायी प्रभाव दिखाई दिए हैं।

एक्यूप्रेशर दर्शन और एक्यु बिन्दु उत्तेजना एक्यूपंक्चर की तरह ही समान सिद्धांतों पर आधारित है। दबाव, बिजली द्वारा उत्तेजना या सुई के बजाय प्रकाश लेजर का उपयोग करके यह शिरोबिंदु कही जाने वाली, सम्पूर्ण शरीर में दौड़ने वाली ऊर्जा की रेखा के विशिष्ट रिफ्लेक्स बिन्दुओं को उत्तेजित करने का काम करती है। कुल 14 मुख्य शिरोबिंदु रेखाएं होती हैं जिनमें से प्रत्येक, व्यक्ति के शरीर के विशेष अंग से सम्बद्ध होती है। जब महत्वपूर्ण ऊर्जा शिरोबिंदु से एक संतुलित और समान तरीके से प्रवाहित होने में सक्षम होती है, तो परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य बेहतर होता है। जब आप दर्द या बीमारी का अनुभव करते हैं तो यह एक संकेत होता है कि आपके शरीर के भीतर ऊर्जा के प्रवाह में अवरोध या रिसाव है।

उपयुक्त बिंदु को खोजने के लिए, धीरे से क्षेत्र की तब तक जांच करें जब तक वह बिंदु न मिल जाए जो ‘फनी बोन’ का आभास न दे या जो संवेदनशील, नर्म या दर्द करने वाला न हो। उसके बाद उस बिन्दु को इतने ज़ोर से दबाएं कि उसमें दर्द हो। उत्तेजना घूर्णन दबाव द्वारा दी जाती है जिसमें पाँच सेकंड तक स्थिर दबाव और पाँच सेकंड तक दबाव हटाया जाता है। आमतौर पर प्रत्येक उपचार सत्र के लिए एक मिनट पर्याप्त है।

एक्यूप्रेशर सिर दर्द, आंखों के तनाव, साइनस की समस्या, गर्दन के दर्द, पीठ के दर्द, गठिया, मांसपेशियों में दर्द, अल्सर के दर्द, मासिक धर्म ऐंठन, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, कब्ज और अपच, चिंता, अनिद्रा आदि में राहत देने में मदद करने में प्रभावी हो सकता है।

शरीर के संतुलन और अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने में एक्युप्रेशर के उपयोग के बड़े लाभ हैं। एक्यूप्रेशर का राह्त देने वाला स्पर्श तनाव कम कर देता है, परिसंचरण बढ़ाता है, और शरीर को गहरे आराम के लिए सक्षम बनाता है। तनाव से राहत प्रदान कर, एक्यूप्रेशर रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है और अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है।

एक्यूपंक्चर 

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एक्यूपंक्चर शरीर के विशिष्ट बिन्दु पर बारीक सुइयां चुभोकर एवं हिलाकर दर्द से राहत देने की प्रक्रिया या उपचारात्मक उद्देश्यों की एक प्रक्रिया है। शब्द एक्यूपंक्चर लैटिन एकस, "सुई", और पंगेरे "चुभोना" से बना है।

परंपरागत चीनी चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार, एक्यूपंक्चर बिंदु शिरोबिंदुओं पर स्थित हैं जिसके सहारे क्यूई, महत्वपूर्ण ऊर्जा, बहती है। एक्यूपंक्चर बिन्दुओं या शिरोबिंदुओं के अस्तित्व के लिए कोई ज्ञात संरचनात्मक या ऐतिहासिक आधार नहीं है।

चीन में, एक्यूपंक्चर का उपयोग सबसे पहले प्रमाण पाषाण युग से प्राप्त होता है, जहां इसके लिए बियान शी या तेज पत्थर का इस्तेमाल किया जाता था। चीन में एक्यूपंक्चर का मूल अनिश्चित हैं। सबसे पहला चीनी चिकित्सा लेख जो एक्यूपंक्चर का वर्णन करता है, पीले सम्राट का आंतरिक चिकित्सा का क्लासिक (एक्यूपंक्चर इतिहास) हुआंग्डी नैजिंग है, जो 305-204 ई.पू. के आसपास संकलित किया गया था। कुछ हाइरोग्लाइफिक्स 1000 ई.पू. में पाए गए हैं जो एक्युपंक्चर के प्रारंभिक उपयोग का संकेत हो सकते हैं एक पौराणिक कथा के अनुसार एक्यूपंक्चर की शुरुआत चीन में तब हुई जब कुछ सैनिकों को जो युद्ध में तीर से घायल हो गए थे, शरीर के अन्य भागों में दर्द से राहत का अनुभव हुआ, और फलस्वरूप लोगों ने उपचार के लिए तीर के साथ (और बाद में सुइयों से) प्रयोग शुरू कर दिया। एक्युपंक्चर का प्रसार चीन से कोरिया, जापान और वियतनाम और पूर्वी एशिया में अन्य स्थानों पर हुआ। 16 वीं सदी में पुर्तगाली मिशनरी पश्चिम के बीच को एक्यूपंक्चर की रिपोर्ट लाने वालों में सबसे पहले थे।

एक्यूपंक्चर के परंपरागत सिद्धांत

पारंपरिक चीनी दवा में, शरीर के भीतर यिन और यांग के संतुलन की शर्त को "स्वास्थ्य" माना जाता है। कुछ ने यिन और यांग की सहानुभूतिपूर्ण और परा-सहानुभूतिपूर्ण तंत्रिका प्रणाली से तुलना की है। एक्यूपंक्चर में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्यूई का मुक्त प्रवाह, अनुवाद करने के लिए कठिन अवधारणा जो चीनी दर्शन में व्याप्त है और आमतौर पर "महत्वपूर्ण ऊर्जा" के रूप में अनुवादित है। क्यूई सारहीन है और इसलिए यांग; उसका यिन, सामग्री समकक्ष रक्त है (यह शारीरिक रक्त से अलग है, और बहुत मोटे तौर पर यह उसके समकक्ष है) एक्यूपंक्चर उपचार क्यूई और रक्त के प्रवाह को नियंत्रित करता है, जहां उसकी कमी हो वहां टोनिफाय करता है; जहां अतिरिक्त हो वहां से निकास करता है और जहां ठहराव है वहां मुक्त प्रवाह को बढ़ावा देता है। एक्यूपंक्चर की चिकित्सा साहित्य की एक स्वयंसिद्ध कहावत है "कोई दर्द नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई दर्द नहीं”

पारम्परिक चीनी दर्शन मानव शरीर को सम्पूर्ण रूप में देखता है जिसमें कई “कार्य प्रणालियां” हैं जिन्हें सामान्य तौर पर शारीरिक अंगों पर नाम दिया जाता है लेकिन जो उनसे सीधे सम्बन्धित नहीं हैं। इन पद्धतियों के लिए चीनी शब्द झांग फू है, जहां झांग "आंत" या ठोस अंग और फू "आंत" या खोखले अंगों के रूप में अनुवादित किया गया है। रोग को यिन, यांग क्यूई और रक्त के संतुलन की हानि के रूप में समझा जाता है (जो होमिओस्टेसिस के कुछ सादृश्य है)। रोग के उपचार का प्रयास परंपरागत रूप से अंग्रेजी में “एक्यूपंक्चर बिंदुओं", या चीनी में ‘ग्ज़ू” कहे जाने वाले छोटी मात्रा के शरीर के संवेदनशील हिस्से पर सुइयों, दबाव, गर्मी आदि की गतिविधि के माध्यम से एक या अधिक कार्य प्रणालियों की गतिविधि को संशोधित कर किया जाता है। इसे TCM में "बेसुरेपन के पैटर्न" के इलाज के रूप में संदर्भित किया जाता है।

मुख्य एक्यूपंक्चर बिंदुओं में से अधिकांश “बारह मुख्य शिरोबिंदुओं" और दो "आठ अतिरिक्त शिरोबिंदुओं (डु माई और रेन माई) - कुल “चौदह चैनलों” पर पाए जाते हैं, जो शास्त्रीय और पारंपरिक चीनी चिकित्सा ग्रंथों में उस मार्ग के रूप में वर्णित हैं जिनसे क्यूई और “रक्त” का प्रवाह होता है। अन्य नर्म बिन्दु (“आशि बिन्दु” के रूप में जाने जाते हैं) पर भी सुई लगाई जा सकती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वहां ठहराव इकट्ठा होता है।

रोगोंलक्षणों या स्थितियों की श्रृंखला जिनके लिए एक्यूपंक्चर को एक प्रभावी उपचार के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

  • एलर्जिक र्हिनाइटिस

  • अवसाद

  • सिरदर्द

  • सुबह की बीमारी सहित मतली और उल्टी

  • अधिजठर, चेहरे, गर्दन, टेनिस कोहनी, पीठ के निचले हिस्से, घुटने में दंत चिकित्सा के दौरान और आपरेशन के बाद में दर्द

  • प्राथमिक डिस्मेनोरिया

  • रुमेटी गठिया

  • कटिस्नायुशूल

  • ग्रीवा और काठ का स्पॉंसिलोसिस

  • दमा

  • अनिद्रा

रंग चिकित्सा

सूरज की किरणों के सात रंगों में विभिन्न उपचारात्मक प्रभाव हैं। ये रंग हैं, बैंगनी, इंडिगो, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल। स्वस्थ रहने और विभिन्न रोगों के उपचार में ये रंग प्रभावी ढंग से काम करते हैं। निर्दिष्ट समय के लिए रंगीन बोतलों और रंगीन ग्लासों में, धूप में रखे पानी और तेल को रंग थेरेपी द्वारा विभिन्न विकारों के इलाज के लिए उपकरणों के रूप में उपयोग किया जाता है। रंग थेरेपी के सरल तरीके स्वस्थ होने की प्रक्रिया में बहुत प्रभावी ढंग से मदद करते हैं।

वायु उपचार

ताजा हवा अच्छे स्वास्थ्य के लिए सबसे जरूरी है। वायु स्नान के माध्यम से वायु चिकित्सा का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को दैनिक 20 मिनट या यदि संभव हो तो उससे अधिक समय के लिए वायु स्नान करना चाहिए। यह अधिक फायदेमंद है जब सुबह ठंडी रगड़ और व्यायाम के साथ संयुक्त रूप से किया जाए। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति को रोज़ाना कपड़े उतारकर या हल्के कपड़े पहनकर एकांतयुक्त साफ स्थान पर चलना चाहिए, जहां पर्याप्त ताजा हवा उपलब्ध हो। एक अन्य वैकल्पिक विधि है छतविहीन लेकिन दीवारों की तरह शटर से घिरे कमरे में ताकि वायु प्रवाह उन्मुक्त रूप से हो लेकिन अन्दरूनी दृश्य किसी को दिखाई न दे।

तंत्र

ठंडी हवा या पानी के द्रुतशीतन प्रभाव के खिलाफ प्रतिक्रिया करने के लिए, वे तंत्रिका केन्द्र, जो परिसंचरण नियंत्रण करते हैं, बड़ी मात्रा में सतह पर रक्त भेजते हैं और त्वचा को गर्म, लाल, धमनीय रक्त द्वारा फ्लश करते हैं। रक्त धारा का प्रवाह बहुत बढ़ जाता है और शरीर की सतह से रुग्ण स्र्ग्ण पदार्थ के उन्मूलन में भी तदनुसार वृद्धि होती है।

क्रियाविधि

वायु स्नान शरीर की सतह पर समाप्त हो रही लाखों तंत्रिकाओं पर सुखदायक और टॉनिक प्रभाव डालता है। यह घबराहट, नसों की दुर्बलता, गठिया, त्वचा, मानसिक और विभिन्न अन्य पुरानी बीमारियों के मामलों में अच्छा परिणाम देता है।

चुंबक चिकित्सा

चुंबक चिकित्सा एक नैदानिक प्रणाली है जिसमें रोगियों के शरीर पर चुम्बक के अनुप्रयोग के माध्यम से रोगों का इलाज किया जाता है। यह सबसे सरल, सबसे सस्ती और पूरी तरह दर्दरहित प्रणाली है जिसमें उपचार के बाद लगभग कोई भी दुष्प्रभाव नहीं होते हैं। केवल इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण केवल चुंबक होता है।

चुंबकीय उपचार विभिन्न शक्तियों में उपलब्ध चिकित्सीय मैग्नेट द्वारा शरीर के अंगों पर सीधे या शरीर के लिए सामान्य उपचार के रूप में लागू किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न भागों जैसे पेट, घुटने, कलाई, आदि के लिए चुंबकीय बेल्ट उपलब्ध हैं। चुंबकीय हार, चश्मे और कंगन का भी इलाज के लिए उपयोग किया जाता है।

लाभ: ऊर्जा संतुलन में मदद करता है; लागू क्षेत्र के लिए परिसंचरण में सुधार करता है; शरीर में गर्माहट में वृद्धि करता है।

आधुनिक युग में मुख्य चिकित्सा पद्धति ऐलोपैथिक चिकित्सा को ही माना जाता है। इसके अलावा बहुत सी पद्धतियां प्रचलित हैं, जिन्हें वैकल्पिक की संज्ञा दी गयी है।[1] निम्न सूची इन्हीं वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को गिनाती है:

 

अति तापमान चिकित्सा

अस्थि चिकित्सा

आयुर्वेदिक चिकित्सा

आहार चिकित्सा

उपवास चिकित्सा

ऊर्जा चिकित्सा

एक्युप्रेशर चिकित्सा

एपी थेरेपी चिकित्सा

एलेक्ज़ेंडर पद्धति चिकित्सा

एस्टोन पैटर्निंग चिकित्सा

ऑक्सीजन चिकित्सा

किण्वक चिकित्सा

घरेलु चिकित्सा

चुंबकीय चिकित्सा

चेलेशन चिकित्सा

जल तंत्रिका चिकित्सा

ता ची चिकित्सा

ध्यान चिकित्सा

ध्वनि चिकित्सा

निर्देशित कल्पना चिकित्सा

परावर्ती विज्ञान चिकित्सा

पुष्प चिकित्सा

पेशीय चिकित्सा

प्रकास चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा

बायोकैमिक चिकित्सा

बृहदांत्र सिंचन चिकित्सा

मनो चिकित्सा

मनोकायिक चिकित्सा

मालिश चिकित्सा

मूत्र चिकित्सा

यूनानी चिकित्सा

योग चिकित्सा - पूर्ण जानकारी के लिये यहाँ पढिये  http://gg.gg/3qw1h

रस चिकित्सा

रेकी चिकित्सा --पूर्ण जानकारी के लिये यहाँ पढिये -http://gg.gg/3qw2m 

विष मुक्तिकरण चिकित्सा

शाकाहार चिकित्सा

सम्मोहन चिकित्सा

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प्राकृतिक चिकित्सा के आधारभूत सिद्धांत

1. सभी रोग एक ,उनका कारण एक और उनकी चिकित्सा भी एक ही है  
          
प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार सभी रोग वास्तव में एक ही होते हैं। उन रोगों का कारण और उनकी चिकित्सा भी एक समान होती है। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर में एकत्रित एक ही विजातीय द्रव्य अनेक रोगों के रूप में प्रकट होता है। जिन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। सभी प्रकार के रोग अनेक होते हुए भी वास्तव में एक ही होते हैं। केवल उनके रूप और प्रकार में भिन्नता होती है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।
          
मान लेते हैं कि किसी घर में सदस्य एक साथ रहते हैं। चारों लोग अप्राकृतिक रूप से जीवनयापन करते हैं। वे उत्तेजक तथा मादक द्रव्यों का सेवन करते हैंआवश्यकता से अधिक भोजन करते हैंपरिश्रम नहीं करते हैं तथा निर्मल जलसूर्य का प्रकाश तथा स्वच्छ वायु आदि प्राकृतिक उपादानों का उचित रूप से भी सेवन भी नहीं करते हैं इसके परिणामस्वरूप उन चारों व्यक्तियों के शरीर का रक्त जहरीला हो जाता है। उनका शरीर दूषित मल (जिसे प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में `विजातीय द्रव्यकहते हैं।) से भर जाता है। जिसके परिणामस्वरूप चारों सदस्य रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। परिस्थितिआयुप्रकृति आदि के अनुसार उन चारों प्राणियों में सभी अलग-अलग बीमारियों से पीड़ित होते हैं जैसे कोई दस्त से पीड़ित हो सकता हैकिसी को बुखार हो सकता हैकिसी को गठिया का रोग हो सकता है तो किसी को बवासीर होती हैं। ये सभी रोग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं किन्तु उनका होने का कारण एक ही होता है। आवश्यकता इस बात कि है कि शरीर के उपस्थिति विजातीय द्रव्यों का बहिष्करण विभिन्न तरीकों से करना जैसे- उपवास और संतुलित आहार से शरीर की जीवनीशक्ति को बढ़ाना तथा जलोपचारमिट्टी की पट्टी सेंकमर्दनएनिमाआदि से शरीर के मल मार्गों को पूर्णत: खोलकर उनको क्रियाशील कर देना ताकि वे शरीर के मल को आसानी से शरीर से बाहर निकाल सके। उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि वास्तव में संसार के सभी रोग एक ही हैं तथा उनके होने का कारण भी एक ही होता है तथा उन रोगों का निदान और चिकित्सा भी एक ही होती है। प्राकृतिक चिकित्सा के सि़द्धांतों के अनुसार किसी रोग का इलाज करने से सम्बंधित रोग के साथ छोटे-छोटे रोग भी नष्ट हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सभी रोग एक ही होते हैं और वे सभी रोग एक ही प्रकार की चिकित्सा से नष्ट भी हो जाते हैं क्योंकि उन समस्त रोगों के उत्पन्न होने का एक ही कारण होता है -शरीर में मल (विजातीय द्रव्य) का एकत्र हो जाना।

2. 
रोग उत्पन्न होने का कारण कीटाणु नहीं होता :
 
उपर्युक्त विवेचन से पूर्ण रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर में एकत्रित दूषित मल ही रोग के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस बात को जान लेने के बाद ही इस बात की थोड़ी सी भी शंका ही नहीं रह जाती है कि वस्तुत: कीटाणु रोगों के कारण नहीं होते हैं। जैसा कि आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सकों की धारणा ही नहींवरन उनका सिद्धांत भी है। यदि हम नियमित रूप से सही तरीके से आहार ग्रहण करते हैं तो कीटाणु जो पूरे संसार भर में फैले हुए हों हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर वहां रह ही नहीं सकते हैं परन्तु यदि हमारा खानपान अनियमित और आप्राकृतिक होगा तो वे हमारे शरीर में असंख्य कीटाणुओं का रूप धारण करके हमें अवश्य ही रोगी बना डालेंगे। यह एक प्राकृतिक नियम है कि सृष्टि में जितने भी पदार्थ पाये जाते हैंइनके सूक्ष्म परमाणु अनवरत रूप से गतिशील रहते हैं जिन वस्तुओं के परमाणु समान रूप से गतिशील रहते हैं उनमें परस्पर आकर्षण होता है और विरुद्ध गति वाले परमाणु एक सी गति रखते हैं। अत: इस सिद्धांत के अनुसार रोग के कीटाणुओं का अस्तित्व उन्हीं के शरीरों में सम्भव है जिनमें पहले ही रोग का कारण विजातीय द्रव्य विद्यमान रहते हैं अथवा जो रोगग्रस्त हैं। लेकिन जिन शरीरों के भीतरकीटाणुओं के विपरीत पोषक तत्व विद्यमान होंगे अर्थात जो विजातीय द्रव्य से सर्वथा मुक्त होंगे और सही अर्थों में जो स्वस्थ होंगेवहां पर उनका अस्तित्व असंभव है। यदि यह कार्य सम्भव मान भी लिया जाए तो ऐसे मानव शरीरों में निषेधक शक्ति पहले से ही विद्यमान होने के कारण रोगों का प्रभाव नष्ट होकर वह स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे। कीटाणु रोग उत्पन्न होने का कारण नहीं होते हैं वरन रोग ही कीटाणुओं का कारण होता है। 

3. 
हमारे शरीर में होने वाले रोग हमारे मित्र के समान होते हैं न कि शत्रु-
 
हमारे शरीर में सदैव विजातीय द्रव्य (मल) उत्पन्न होता रहता हैजिसे हमारे शरीर के मलमार्गरोमकूपगुर्देगुदा आदि प्रतिदिन निकालते रहते हैं। यदि किसी कारण से उस मल को बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता है तो वह शरीर में रोग उत्पन्न करके बाहर निकल जाने का प्रयास करता है। इसी स्थिति को रोग होना कहते हैं। इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य को रोग होना कितना आवश्यक है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो रोग हमारे मित्र होते हैंशत्रु नहींजो हमें स्वास्थ्य देने आते हैंस्वास्थ्य लेने नहीं। इस बात को हम इस उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं।
          
मान लेते हैं कि प्रकृति को हमारे शरीर में उपस्थित विजातीय द्रव्य (मल) को शरीर से बाहर निकालना है तो इस कार्य के लिए वह उल्टी और दस्त का सहारा लेती हैइसके साथ ही अधिक प्यास भी लग सकती हैयदि उसे मस्तिष्क को साफ करना है तो जुकाम होगाप्यास अधिक लगेगी तथा नाक के रास्ते के द्वारा पानी बहेगा। जिसे हम सभी लोग समझते हैं वह वास्तव में चिकित्सा होती है। रोग होने पर हमें सतर्कतापूर्वक अपनी गलतियों को देखना चाहिए और विचार करना चाहिए कि हमारे द्वारा प्रकृति के नियमों को न अपनाये जाने के कारण हमें प्रकृति का दंड मिल रहा है। इसका प्रायश्चित रोगी बनकर करना पड़ रहा है। यह हमारे लिए ही लाभकारी होता है क्योंकि यह विकार शरीर में रह जाते तो हमारी गलतियों का क्रम जारी रहता जिसके फलस्वरूप हमें भविष्य में अधिक भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता। हमें रोगों से पीड़ित होने के बाद घबराना नहीं चाहिए बल्कि सच्चे मन से उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
विशेष :
 
वास्तव में तीव्र रोगों का मुख्य कार्य हमें हमारे शरीर में उपस्थित विजातीय द्रव्यों के प्रति सचेत करना होता है। इसका कारण यह है कि रोगी में या तो जीवनीशक्ति बहुत कम होती है अथवा शरीर में स्थिति विजातीय द्रव्य की मात्रा अत्यधिक होती है या फिर उसका उपचार अपर्याप्त या हानिकर हुआ होता है। ऐसी स्थिति में प्रकृति अपनी सफाई का कार्य करने में असफल रह जाती है तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। थककर सोने में जो सुख मिलता है या भोजन करने से व्यक्ति को शांति मिलती है उसी प्रकार की सुखशांति व्यक्ति को रोग से मुक्त होने के बाद मिलती है। रोग से मुक्त होने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उसका शरीर हल्का हो गया है तथा उसका शरीर नया हो गया है और एक बोझा उसके सिर से नीचे उतर गया है। यदि रोगी को इन सभी  बातों की अनुभूति (महसूस) नहीं होती है तो हमें यह समझना चाहिए कि रोग पूर्ण रूप से ठीक नहीं हुआ है।

4. 
प्रकृति स्वयं चिकित्सक होती है - 
 
प्राकृतिक चिकित्सा में यह माना जाता है कि जीवन का संचालन एक विचित्र और सर्वशक्तिमान सत्ता द्वारा होता है जो प्रत्येक व्यक्ति के पार्श्व में रहकर जन्म होनेमरनेस्वास्थ्य और रोग आदि बातों की देखभाल करती है। उस महान शक्ति को प्राकृतिक चिकित्सक ``जीवनीशक्ति `` कहते हैं। ईश्वर में विश्वास रखने वाले लोग इसे ईश्वरी शक्ति कहते हैं और ईश्वर को न मानने वाले उसे प्रकृति मानते हैं। हमारे शरीर में यही शक्ति रोग से मुक्ति देकर हमें अरोग्यता भी प्रदान करती है। प्राकृतिक चिकित्सा वह शक्ति है जो हमारे शरीर के आंतरिक भाग में निहित होती है। केवल यही हमारे स्वास्थ्य को बनाये रख सकती है और रोग को दूर कर सकती है।

5. 
चिकित्सा रोग की नहींरोगी के सम्पूर्ण शरीर की होती है- 
 
चिकित्सा की अन्य पद्धतियों में रोगी के रोग की चिकित्सा पर अधिक जोर दिया जाता है। किन्तु प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोगी के सम्पूर्ण शरीर की चिकित्सा करके उसे रोग से मुक्त किया जाता है। जिससे रोग के निशान स्वयं ही मिट जाते हैं। वस्तुत: रोग तो शरीर के भीतर एकत्रित हुआ मल होता है जो समय पाकर रोग विशेष क्रिया द्वारा बाहर निकल जाने का प्रयत्न करता है। इसलिए रोग की चिकित्सा करते समय रोग के कारणों को ढूंढ़कर उनका इलाज करना चाहिए जैसे सिरदर्द होने पर सिरदर्द की दवा नहीं होनी चाहिए बल्कि सिरदर्द होने का कारण पाचनसंस्थान का दोष अथवा पूरे शरीर के रक्तविकार की चिकित्सा होनी चाहिए। जिससे सिर का दर्द स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली द्वारा सभी प्रकार के रोगों को ठीक किया जा सकता है लेकिन सभी रोगियों को नहीं। रोगी का अच्छा होना अथवा न होना निम्नांकित बातों पर निर्भर करता है।
1. 
रोगी के शरीर में एकत्रित विजातीय द्रव्य (मल) कितनी मात्रा में है।
2. 
रोग को नष्ट करने के लिए उपयोगी जीवनीशक्ति रोगी के शरीर में है अथवा नहीं है।
3. 
रोगी अपने रोग का कितना इलाज कर चुका है अथवा कर रहा हैकहीं वह धैर्य को तो नहीं खो रहा है।
4. 
रोग से पीड़ित व्यक्ति प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में विश्वास रखता है अथवा नहीं। 
      
उपयुक्त बातों को हम एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं।
मान लीजिए कि टी.बी. की बढ़ी हुई अवस्था में प्राकृतिक चिकित्सा करने पर भी बहुत से रोगी मर जाते हैं। लेकिन यह निश्चित होता है कि प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के समय मरने वालों की मृत्यु शांतिदायनी होती है। उपवासफलाहार आदि के द्वारा रोगी का शरीर निर्मल हो जाता है जिसके कारण मरते समय व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि आरम्भ से ही प्राकृतिक चिकित्सा होने के बावजूद रोगी की मृत्यु हो जाती है जिसमें रोगी के पैतृक रोग उसकी कमजोर जीवनीशक्ति और उसके पूर्व संस्कार के कारण होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सकों का दावा होता है कि प्राकृतिक चिकित्सा से कभी भी किसी को हानि नहीं हो सकती है। ऐसा कभी भी नहीं होता है कि अन्य चिकित्सा प्रणालियों से बच सकने वाला रोगी प्राकृतिक चिकित्सा से न बच सके और मर जाए।

6. 
प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा रोग का उपचार :
यदि प्रकृति को यह स्वीकार होता कि रोग अथवा निरोगी होने की अवस्था में चिकित्सक निदान के लिए मनुष्य के शरीर के भीतरी अवयवों (हृदयवृक्कआन्तों आदि) को और उनमें होने वाली स्पंदन (कंपनधड़कन) आदि प्राकृतिक क्रियाओं का होना देख सके तो वह मनुष्य के शरीर पर अपारदर्शी चमड़े और मांस का खोल चढ़ाकर उसे मजबूती के साथ नहीं जकड़तीबल्कि मानव शरीर पर एक ऐसी झिल्ली लगी होती है कि जिसके माध्यम से डाक्टर रोग को आसानी से देख पाते हैं कि शरीर के भीतर के अंगों में क्या गड़बड़ी है और इस तरह रोग के इलाज करने में उन्हें सरलता होतीकिन्तु ऐसा नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति यह कभी भी नहीं चाहेगी कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी कारण के परेशान हो। प्रकृति और परमात्मा के छिपे हुए रहस्यों का पता लगाने का दावा करने वाला मानवकृत विभिन्न नवीनतम चिकित्सीय यंत्रों से रोगों का पता लगाने वाले अर्थात रोगों का उपचार करने वाले के 90 प्रतिशत उपचार गलत होते हैं। बाकी बचे हुए 10 प्रतिशत महज इत्तेफाक (संयोग) होता है। यदि थोड़ी देर के लिए यह भी मान भी लिया जाए कि रोग का इलाज हो गया है किन्तु इलाज हो जाने से रोग का पता नहीं भी नहीं चलता है। इस सम्बंध में बड़े-बडे़ डाक्टरों का अनुभव बताता है कि औषधोपचार पद्धति में रोग का सही उपचार हो जाने के बावजूद भी कुछ रोग जीर्ण रोगों में परिवर्तित हो जाते हैं। शरीर में विजातीय द्रव्यों का एकत्र होना ही रोग होता है। इसके लिए एक प्राकृतिक चिकित्सक को केवल इतना देखना होता है कि वह द्रव्य शरीर के किस भाग में स्थित है इसके उदाहरण मोटे आदमी होते हैं। यदि यह सामान्य हुआ तो उसे प्राकृतिक उपचार द्वारा शीघ्र ही दूर किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त रोगी के मुख और गर्दन की स्थितित्वचा के बदले हुए रंग को देखकरउसके रोग से पीड़ित होने का कारण रोगी से पूछकर भी रोग का इलाज कर लिया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धांत प्रत्येक स्थिति में यहीं रहता है कि यह पता लगाया जाए कि रोगी के शरीर के किस भाग में किस अंग विशेष पर विजातीय द्रव्य का भार अधिक है। जिसे सूक्ष्म नज़रों से देखने से न केवल एक प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं बल्कि कोई भी जनसाधारण व्यक्ति भी देख सकता है।
          
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राकृतिक चिकित्सा के रोगोपचार की विधि भी उतनी ही सहज और सरल होती हैजितनी की उसकी चिकित्सा विधि। इसमें भटकने और बहकने का तनिक भी भय भी नहीं होता है।

7. 
प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा जीर्ण रोगों के ठीक होने में अधिक समय लगता है- 
 
वर्तमान समय में सभी प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में प्राकृतिक चिकित्सा सबसे अधिक तेज रफ्तार वाली चिकित्सा हैमगर दिक्कत यह है कि व्यक्ति सभी तरह चिकित्सा कराने के बाद ही प्राकृतिक चिकित्सा की शरण में आता हैमगर तब तक वह रोग असाध्य हो चुका होता है। इस समय तक रोगी केवल रोग से ही नहीं बल्कि उसके इलाज हेतु दी गई दवाओं के जहर से भी पीड़ित होता है। इस प्रकार प्राकृतिक चिकित्सक को मुख्य रोग का इलाज करने के साथ-साथ ही उन दवाओं के विषों को भी शरीर के द्वारा निकालना पड़ता है जिसमें महीनों से लेकर सालों तक का समय लग सकता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा में निरोग होने का मतलब केवल रोग ही नहींबल्कि रोगी को नया जीवन प्रदान करनाशरीर को पूर्णरूप से तन्दुरुस्तमजबूत और शक्तिशाली होना भी होता है। अत: स्वास्थ्य लाभ की इस प्रक्रिया में काफी अधिक समय भी लग सकता है।
          
प्रकृति के सभी कार्य तेजी से नहीं बल्कि धीरे-धीरे होते हैं। जो शक्ति धीरे-धीरे संचित होती है वह इकटठे होने के बाद बडे़ से बड़े पर्वत को भी नष्ट कर सकती है। कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो बीज को तुरंत पेड़ का आकार दे दे। एक कहावत प्रचलित है कि जल्दी का काम शैतान का होता है। पेड़ काट डालना मिनटों का काम होता है जबकि पेड़ उगाना वर्षों का काम होता है। प्रकृति की नियमावली में संहार जल्दी सम्भव होता है किन्तु विकास जल्दी सम्भव नहीं होता है। चिकित्सकों के अनुसार रोग भी एक विकास है। वह न तो छूत का परिणाम है और न ही बाहर से आकर शरीर में घर करता है रोग का विकास और विनाश धीरे-धीरे होता है। जब हमारे शरीर में रोग के चिन्ह प्रकट होते हैं तो हमें यह नहीं समझना चाहिए कि रोग अभी ही प्रकट हुआ है। जबकि रोग तो बहुत पहले से ही हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका होता है। इसी प्रकार इलाज के बाद रोग के चिन्ह मिट जाने के बाद भी हमें यह नहीं समझना चाहिए कि रोग पूरी तरह से नष्ट हो गया है। रोग पूरी तरह से ठीक होने में काफी समय लगता है। इलाज के काफी समय बाद रोग का बीज नष्ट होता है तथा रोगी नवजीवन और दीर्घायु प्राप्त करता है। इसमें संदेह होता है कि रोग से जल्दी छुटकारा न मिलने के कारणरोगी का धैर्य छूट जाना स्वाभाविक होता हैकिन्तु उसकी अधीरता को भी हमें उसके रोग का ही एक अंग समझकर उसे धैर्य धारण कराना चाहिए और चिकित्सा क्रम जारी रखकर उसको स्वस्थ बनाना चाहिए।

8. 
प्राकृतिक चिकित्सा से दबे हुए रोग उभरते हैं- 
 
औषधीय उपचार से रोग दबे रह जाते हैं। इसकी तुलना में प्राकृतिक चिकित्सा प़द्धति से रोगों का उपचार करने से दबे हुए रोग भी उभरकर जड़ सहित हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
          
प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों के उभार को चिकित्सीय भाषा में रोग का तीव्र रूपरोग की अपकर्षावस्थापुराने और प्रत्यावर्तनरोग उपशन संकट आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। इसका अर्थ यह होता है कि जीर्णरोग के समय ही उस रोग की तीव्र प्रतिक्रिया का होना अथवा दबे रोग का प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार प्राप्त जीवनीशक्ति के प्रभाव से रोग जड़ सहित नष्ट हो जाता है जिससे रोगी स्वस्थ हो जाता है।
          
रोगों का उभार साधारणतया 2-4 दिन अथवा अधिक से अधिक दिनों तक में समाप्त हो जाता है और शरीर को रोगों से छुटकारा मिल जाता है। उभार की क्रिया में यह एक अद्भुत बात है कि रोगी के शरीर में जितने भी रोग दबे होते हैं उभार काल में उसके विपरीत क्रम से एक-एक रोग उभरते हैं और नष्ट होते जाते हैं। प्रत्येक दो रोगों के बीच में कुछ अंतर होता है जैसे- किसी रोगी को पहले दस्त की बीमारी हुई तथा दवाओं के सेवन के बाद वह दब गई। इसके बाद बुखार हुआ और वह भी दवा के कारण नष्ट हो गया। हमारे शरीर के पुराने रोगों को शरीर से बाहर निकालने में प्रकृति को एक निश्चित समय तक कार्य करना पड़ता है।
विशेष :
          
लोगों को मल-मूत्र त्याग करते समय जो भी थोड़ी सी परेशानी होती है वह प्राकृतिक चिकित्सा का उभार होता है क्योंकि मल-मूत्र त्याग के बाद हमारा शरीर पहले से हल्का प्रतीत होता है। महिलाओं में प्रतिमाह मासिकधर्म का होनाप्रसव के समय होने वाला दर्दपके हुए फोड़े का असहनीय दर्द और टीसन तथा शरीर में चुभे हुए कांटे को निकालते समय का दर्द आदि सभी `प्राकृतिक उभारक्रिया के ही उदाहरण हैं। सभी तीव्र रोग जैसे हैजाज्वरचेचक आदि हमारे मल से भरे शरीर सेशरीर की जीवनीशक्ति द्वारामल को अधिक वेग के साथ निकाल फेंकने में शीघ्रता करते हैंउसे हम रोगों का तीव्र या तीव्र उपशम संकट कहते हैं।
          
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि रोगों के इलाज के समय में रोग का उभार होना कितना कल्याणकारीमंगलमय और आवश्यक हैजिससे हमें बिल्कुल भी घबराना और डरना नहीं चाहिए। हालांकि उभार को जल्दी लाने और उसे तेजी से नष्ट करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस समय जल्दबाजी करना हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। प्रकृति द्वारा धीरे-धीरे कार्य करने का नियम यहां भी अपनाना चाहिए। परेशान करने वाले उभार उन्हीं व्यक्तियों में होते हैं जो व्यक्ति रोगों के उपचार के लिए पहले ही विषाक्त औषधियों का सेवन कर चुके होते हैं और जिनको निकालने में प्राकृतिक चिकित्सक अधिक जल्दी करते हैं। जो लोग प्राकृतिक जीवनयापन करते हैं और दवाओं से बचे रहते हैं उनके बीमार पड़ने के बाद ठीक होने के समय उभार होते ही नहीं हैं या तो बहुत अधिक हल्के होते हैं और इतने से ही पूरी तरह से स्वस्थ हो जाते हैं।
 
9. 
प्राकृतिक चिकित्सा से मनशरीर तथा आत्मा तीनों स्वस्थ होते हैं-
 
हमारा शरीरमन और आत्मा तीनों का परस्पर सामंजस्य ही पूर्ण स्वास्थ्य होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन तीनों की स्वास्थ्योन्नति पर बराबर ध्यान रखा जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली की यह सबसे बड़ी विशेषता होती है। प्राकृतिक चिकित्सक मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को उसके शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक आवश्यक समझते हैं। एक प्राकृतिक चिकित्सक की दृष्टि में मनुष्य शरीर के स्वास्थ्य का सम्बंध उसके मन और आत्मा से भी होता है।
          
प्राकृतिक जीवनरहनसहनतथा प्राकृतिक आहार हमारे जीवन में सात्विकता लाकर हमारे शरीर को स्वस्थ रखते हैं ये हमारे मन का संयम करके हमें आध्यात्म की ओर ले जाते हैं। यह असत्य नहीं है कि यदि मानव जाति प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन को अपनाए तो निर्दयतापाशुविकतापैशाचिकता तथा हिंसा का स्थान इस संसार में बचेगा ही नहीं और पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आएगा। रोगी शरीरनिर्बल आत्मा और कलुषित मन तीनों के इलाज हेतु अपने आराध्य की प्रार्थना अथवा राम के नाम का जाप करना ही चिकित्सा होती है।

10. 
प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा रोग के उपचार में उत्तेजक औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिए - 
औषधियों के द्वारा रोगों के उपचार का सिद्धांत है कि रोग बाहरी चीज है और वह हमारे शरीर में अचानक आक्रमण के समान आते हैं। इसलिए अधिक शक्तिशाली से शक्तिशाली औषधियों का प्रयोग करके रोगों से लड़ना चाहिए। इसीलिए डाक्टर और वैद्य जहरीली औषधियों जैसे पाराअफीमसंखिया आदि का प्रयोग करके रोगों को नष्ट करने का प्रयास करते हैं और इस बात को नज़रअंदाज (अनसुनी) कर देते हैं कि सेवन के लिए दी जाने वाली औषधियां विष ही हैं। चाहे उसकी मात्रा कम हो या अधिक हो उसका सेवन हमारे शरीर के लिए अधिक घातक और हानिकारक होता है। जहरीली वस्तुओं के सेवन से रोग घटने के स्थान पर बढ़ने लगता है। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में उत्तेजक और जहरीले पदार्थों का सेवन अनावश्यक ही हमारे शरीर के लिए हानिकारक होता है। इसका कारण यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धांत औषधीय चिकित्सीय प्रणाली से बिल्कुल ही अलग है। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में रोग बाहरी चीज नहीं बल्कि शरीर के आंतरिक भाग की चीज मानी जाती है। जिसे प्राकृतिक साधनों द्वारा दूर किया जाता है अर्थात जिन प्राकृतिक उपायों को अपनाकर हम रोगों से बचे रहते हैंउन्हीं तरीकों को अपनाकर हम रोगों को नष्ट करते हैं।
          
प्राकृतिक चिकित्सक औषधियों को हमारे शरीर के लिए अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिकारक भी मानते हैं। प्रकृति स्वयं ही एक चिकित्सक होती हैयह दवा नहीं हैं। औषधियों का काम रोग को छुड़ाना नहीं है। औषधि तो वह सामग्री है जो प्रकृति के द्वारा रोगों को नष्ट करने के लिए प्रयोग की जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में औषधि की यही वास्तविक परिभाषा होती है।
          
सभी प्रकार के खाद्य-पदार्थ औषधीय गुणों से भरे होते हैं जैसे हवाजलसूर्य का प्रकाश से लेकर फलसब्जी और विषहीन जड़ी-बूटियां तक जो खाद्य वस्तुओं के समान ही प्रयोग की जा सकती हैं औषधि कहलाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत यहीं खाद्य-पदार्थ औषधियां और आहार दोनों ही होते हैं। इसी तरह से काष्ठ औषधियां भी प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत आती हैं किन्तु शर्त यह है कि वे अनुत्तेजक और चिकित्सा के अंतर्गत हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में काष्ठ औषधोपचार और खाद्योपचार एक ही वस्तु के दो नाम होते हैं। प्राय: सभी उद्भिज पदार्थों में जो मनुष्य के भोजन के अंश हो सकते हैंप्राणकणों के लिए अच्छी और ताजी काष्ठ औषधियां होती हैं जिनका प्रयोग प्राकृतिक चिकित्सा के रोगी के स्वभाव की सहायता पहुंचाने के लिए किया जाता है।